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________________ ५८४ जैन महाभारत उत्तर में उन्होंने कहा कि 'बस्ती के बाहर निर्जन वन तथा अन्य शून्य स्थान में आर्याओं के लिए आतापना लेना निषिद्ध है। किन्तु यह उत्तर सुकुमालिका को पसन्द न आया। वह अपने निश्चयानुसार उद्यान में अकेली रह आतापना आदि लेने लगी। _____ ससार में अनेक विचारों के मनुष्य होते है। कोई सज्जन तो कोई दुर्जन | चम्पा नगरी में भी एक ललित गोष्ठी थी जिसमें परस्त्री गामी, वेश्यागामी आदि दुर्व्यसनी लोग जमा रहते थे । इसमें अधिक धनी लोगोंकी सख्या थी जो गृह निर्वासित,निर्लज्ज विषय लोलुप आदि थे। इन्हीं दिनो यहाँ एक देवदत्ता नामक सुप्रसिद्ध वेश्या थी। एक बार वह उक्त ललित गोष्ठी के पाँच सदस्यों के साथ उद्यान के एक भाग में क्रीड़ा कर रही थी। दैवयोग से इसी में सुकुमालिका आर्या बैठी थी । उसकी दृष्टि अनायास ही उस वेश्या पर जा पड़ी । उसने देखा कि एक उसे गोद मे लिये बैठा प्यार कर रहा है तो दूसरा उसके सिर पर चवर कर रहा है। तीसरा सुगधित पुष्पों से उसकी वेणी को सजा रहा है । इसी प्रकार वे पॉचो पुरुष उसकी सेवा तल्लीन हैं, और स्त्री भी प्रसन्न हो उनके साथ क्रीड़ा कर रही है। इस दृश्य को देखते ही सुकुमालिका को अपने गृहस्थ के दुखी जीवन का स्मण हो आया। वह अनुताप कर लगी कि यह स्त्री अत्यन्त शोभाग्य शालिनी है जिसके कि पाँच पाँच पुरुष सेवा मे तत्पर रहते है किन्तु मैं ऐसी भाग्य हीना थी जिसको कि एक पति का सुख भी प्राप्त न हो सका। इस प्रकार सोचती अनुताप करती हुई सुकुमालिका के हृदय का धैर्य एवं समता का बाँध टुट गया। विषय बासना जागृत हो गई। अप्राप्य की कामना करने लगी। अन्त में उसने अपने तपोनुष्ठान के फल प्राप्ति की इच्छा की "कि यदि मेरे तप आदि का प्रभाव है तो उनके कारण मैं भी अपने आगामी भव में इसी स्त्री की भॉति सुखोपभोग भोगने वाली बनूं।" इस प्रकारनिदान बाँध कर वह कुछ-कुछ नियम विरुद्ध जीवन मे प्रवृत्त होने लगी। ___ इस पर आर्याओं ने उसे सम्भलने की चेतावनी दी और उसे एकांत मे न रहने के लिये भी आदेश दिया। किन्तु उस आदेश का उसके जीवन पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। उल्टे और असयम स्थानों को अपनी
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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