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________________ दौपदी स्वयंवर ५८३ अपनी पत्नी स्वीकार कर यहीं आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करो । और इस अमित सम्पत्ति के आज से तुम्हीं मालिक हो । युवक ने उपरोक्त कथन को इस प्रकार सहर्ष स्वीकार कर लिया मानो किसी निर्धन को धन का अक्षय भडार मिल गया हो । यथा समय जब वह रात्रि को सुकुमालिका के शयन कक्ष में पहुंचा उसे भी वह अगार व असिधारा की भाँति तप्त एव तीक्ष्ण प्रतीत हुई । उसने पुन अपना पूर्व वेश धारण कर लिया और वहाँ से भाग गया । सुकुमालिका पहिले की भाँति रुदन करने लगी। इस पर पिता ने उसे 'समझाते हुये कहा पुत्री ! तेरे पूर्व जन्म के किसी भीषण अन्तराय कर्म का उदय भाव प्रतीत होता है । जिससे तुझे जीवन में बार बार असफलता मिल रही है । अन्तराय कर्म का यही लक्षण है । अत: अब तुझे अपने प्राप्त जीवन पर ही सतोष कर दान पुण्य तथा धर्माचरण में ही समय लगाना चाहिये जिससे कि अशुभ कर्मों की समाप्ति हो सके । अब सुकुमालिका पिता द्वारा दर्शित मार्ग में जीवन बिता रही थी कि उसके घर एक दिन गोपालिका नामक आर्या का आगमन हुआ । उसने उनका बहुमान के साथ स्वागत सत्कार किया और आहार आदि देकर अपनी दुःख भरी कहानी कह सुनाई । आर्या ने उसे आत्म सन्तोष दिलाते हुए तप आदि के अनुसरण की शिक्षा दी । तदनुसार सुकुमालिका नानाविध तपचरण के अनुष्ठान में लग गई । तदनन्तर माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर उक्त आर्या के पास दीक्षित हो गई। और वहाँ वह ज्ञानाभ्यास करती हुई चारित्र्य का पालन करने लगी । यूँ ही समय बीतता गया । एक दिन सुकुमालिका आर्या के हृदय मे उद्यान में धूप की प्रतापना लेने की इच्छा उत्पन्न हुई । क्योंकि आज भी श्रमण निमन्थों के लिए कहा गया कि श्रयावयति ग्रिम्हेसु, हेमतेसु श्रवाउडा | वासासु पडिसलीणा, सजया सुसमाहित्रा || अर्थात् सुसमाधिवंत सयति ग्रीष्मऋतु में श्रातापना लेते हैं तथा शर्द ऋतु मे वस्त्र रहित अथवा अल्प वस्त्रों में रहते हैं और वर्षा ऋतु में तो कच्छप की भाँति अपनी इन्द्रियों को वश में रख कर ही स्थिर रहते हैं । उसने जाकर अपनी स्थविरा से उस लिए श्रक्षा मागी किन्तु
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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