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________________ द्रौपदी स्वयवर ५७२ श्रेष्ठवर की प्राप्ति हुई थी। । अर्जुन पुनः अपने स्थान पर आ बैठा। द्रोपदी ने पिता की आज्ञानुसार अर्जुन के गले में वरमाला डालदी किन्तु वह देवयोग से दर्शकों को पॉचों भाइयों के गले में दिखाई देने लगी। इतने मे "अच्छा हुआ, अच्छा हुआ द्रोपदी की मनोकामना पूर्ण हुई, इसे श्रेष्ठ वरकी प्राप्ति हुई है" इस प्रकार की अतरिक्ष ध्वनि हुई। पांचों पाण्डवों के गले में माला देख महाराज द्रपद अत्यन्त चिन्तित हुवे । वे सोचने लगे मैं अपनी पुत्री को पॉचों के हाथो कैसे सौंप सकता है। यदि मैं ऐसा करू गा तो जगत में सभ्य जनों के बीच उपहास का पात्र बन जाऊगा । और यह बात है भी न्याय और नीति के विरुद्ध कि एक नारी अनेक पुरुषों का वरण करे। इतने में ही घूमते घामते वहाँ एक चारण श्रमण अवतरित हुए। जिनका सौम्य मुख मण्डल तपश्चरण के प्रभाव से देदिप्यमान हो रहा था, जिनके भाल पर शान्ति की अनन्त रेखायें अकित थी जो शम, दम आदि जीवनोचित्त गुणों को धारण किये हुये थीं, गगन गामिनी लब्धी से युक्त थे । महाराज ने उन्हें उचित आसन दिया। और श्रीकृष्ण आदि राजा लोग नमस्कारकर निवेदन करने लगे हे भगवन् । द्रोपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी किन्तु वह पांचों भाइयों के गले दिखाई दे रही है । तो क्या यह इन पांचों को स्वीकार करेगी ? क्या यह न्याय सगत है। उनकी जिज्ञासा को शान्त करने के लिये चारण श्रमण कहने लगे राजन् इसके लिये यह न्याय सगत ही है क्योंकि इसके पूर्व कृत कर्म की यही प्रेरणा है। और उसी के प्रभाव से यह सब कुछ हुवा है। सुनो में तुम्हें इसके पूर्व जन्म की एक घटना सुनाऊं जिसे सुनकर तुम्हें तथा दर्शकों को आत्म सतोष होगा। इतना कहकर मुनिराज ने पूर्व जन्म का वृतान्त सुनाना प्रारम्भ किया द्रोपदी का पूर्व भव अग देश में चम्पापुरी एक अत्यन्त सुन्दर तथा रमणीय नगरी थी। जिसमें अवस्थित गगन चुम्बी अट्टालिकाओं में नाना जातियो के धनाढ्य लोग बसते थे। वहीं एक वनाव्य ब्राह्मण परिवार था जिसमें
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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