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________________ प्रद्युम्न कुमार तथा वैदर्भी ५३६ रुक्मणि ने दीर्घ निश्वास छोडा। "क्या बात है ? मैं देख रहा हूँ कि आप चिन्तित है, मन में कोई पीडा है।" "बात ही कुछ ऐसी हो गई है बेटा।" "मुझे भी तो बताइये।" "क्या बताऊ मै अपनी भूल से एक हार्दिक पीडा मोल ले बठो।" दुखित होकर रुक्मणि बोली। प्रद्युम्न हठ कर बैठा, मा जा बात है आप मुझे अवश्य - बताइये।" बार बार आग्रह करने पर रुक्मणि को भी बतानी पडी। सारी बात सुनकर प्रद्युम्न ने उसी समय प्रतिज्ञा की--कि "चाहे जो हो मैं वैदर्भी को व्याह कर लाऊगा, उसे आपकी पत्नी बनाकर छोडूगा। जब तक उसे महल में न ले आऊ, चैन न लू गा।" रुक्मणि प्रद्युम्न कुमार की इस प्रतिज्ञा को सुनकर कांप उठी, वह बोली-"बेटा उत्साह में आकर ऐसी कठोर प्रतिज्ञा मत करो। मैं नहीं चाहती कि वैदर्भी को प्राप्त करने के लिए तुम सहस्रों व्यक्तियों का रक्त बहाओ। ___ "मां मैं यह भी प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस प्रतिज्ञा को पूति के लिए रक्त की एक बूद भी न बहने दृगा।” प्रद्युम्न कुमार ने प्रतिज्ञा की और शाम्ब कुमार को साथ लेकर द्वारिका से चल पडा। रुक्म की राजधानी भोजकटपुर पहुच कर उन्होंने डोम का रूप धारण कर लिया और नगर के बाहर उपवन में डेरा लगा दिया। ढोल आदि लिए और नगर में जाकर गाते हुए निकलने लगे, मधुर कण्ठ और ढोल बासुरी की ध्वनि ने एक विचित्र समा बाध दिया । जो सुनता वही मुग्ध हो जाता । तमाम नगर में इन डोमो की ख्याति फेल गई । और यह बात रुक्म के कानों में भी पडी कि दो डोम नगर में फेरी लगा रहे हैं, बहुत अच्छा गाते बजाते हैं एक दिन जब वे राजमहल के आगे से गाते बजाते निकल रहे थे । रुम्म ने उन्हें दरबार में बुजवा लिया। दरबार में उन्हें गाने को कहा । दोनों ने अत्युत्तम सगीत सुनाया, मधुर कण्ठ से निकले गीतों को सुनकर वैदर्भी भी दरबार में छा गई। उसे उनका सगीत बहुत प्रिय लगा।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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