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________________ ५३४ जैन-महाभारत करे तो उसे वरमाला पहना दो। यही तो स्वयंवर का उद्देश्य है।" । सुन्दरी आनाकानी करती रही। पर सत्यभामा अत्याग्रह करने लगी और अन्त में वह उसे उपवन से हाथी पर बैठाकर नगर की ओर चल पड़ी। उस पर अपना प्रेम जताने और सुभानु के लिए जीतने के निमित्त वह स्वय ही उस पर चंवर ढोलती जाती थी। ___ महल में पहुचकर उसे एक सुसज्जित कमरे मे बैठा दिया। नाना प्रकार के भोजन उसको अपने हाथो से खिलाये । भॉति भॉति के सुन्दर, मनोहर और बहुमूल्य वस्त्र तथा आभूषण उसे दिखाकर उसका मन मोहने की चेष्टा की। फिर सुभानु को बुलाकर उसके सामने बैठा दिया। उस समय सुभानु बहुमूल्य एवं सर्व सुन्दर वस्त्रों मे था । अनेक झूठी सच्ची प्रशसाओ का तूमार बांध दिया। और जब उसे आशा हा गई कि मनोकामना पूर्ण हो जायेगी, सुभानु को लेकर वहा से चली गई । दासियो को उसकी सेवा में लगा दिया। बाहर जाकर सुभानु से बोली-"सभी प्रकार से उस तुम्हे पति रूप मे स्वीकार करने का मैने प्रयत्न कर लिया है। अब शेष रहा है तुम्हारा कार्य । तुम अपने प्रेम के पाश मे बाध लो। अकेले मे जाकर उससे प्रेम याचना करो। तुमने युक्ति पूर्वक प्रेम प्रदर्शन किया तो काम बना ही पडा है।" सुभानु बोला-"मां । आप विश्वास रक्खे मैं उसका मन जीतकर छोडूगा। बस एक बार एकान्त मे मिलने का आप प्रबन्ध करदे ।" प्रद्युम्न कुमार यह सारा दृश्य गुप्त रूप से देख रहा था। सत्यभामा ने अवसर पाकर दासियो को एक एक कर के वहां से हटा लिया और सुभानु का पाठ पढ़ा कर उस के पास भेज दिया। सुभानु कापता हृदय लिए हुए उस कमरे की ओर गया। उसका मन डावाडोल था । उस की दशा वही थी जो परीक्षा में उतरते व्यक्ति की होती है । वह अपनी सफलता की कामना करता हुआ गया। वह सोचता जाता कि किन शब्दो का प्रयोग वह अपना प्रेम प्रदर्शन करने के हेतु करेगा । उसने धड़कते हृदय कोलिए हुए कमरे मे प्रवेश किया। पर ज्यों ही उसने फूलो से सजी सुन्दरी की शैया पर दृष्टि डाली,वह धक से रह गया । उस ने ऑखे फाड़ फाड़ कर देखा तो उसके आश्चर्य का .' ठिकाना न रहा । उसे अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ । आखों को
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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