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________________ शाम्ब कुमार ५३३ सुन्दरी की बात सुनकर सत्यभामा को बड़ी प्रसन्नता हुई । प्रसन्नता इस लिए कि अब वह इस पुष्प से सुभानु के हृदय उपवन को सजा सकेगी। अपने बेटे को सन्तुष्ट करने का सरल उपाय हो सकेगा । यह सोचकर वह कहने लगी- "सुन्दरी । तुम्हारी बात सुनकर मुझे तुम्हारे प्रति सहानुभूति हो गई हैं। मैं तुम्हारी प्रत्येक सहायता करूगी। मैं इस नगर की रानी हूँ । तुम्हारा यहा अकेले रहना उचित नहीं है । तुम मेरे साथ महल मे चलो।" "मैं आपके महल मे कैसे जा सकती हूँ। पता नहीं पिता जी क्या सोचे ?" "तुम्हें कही तो शरण लेनी ही पडेगी । तुम मेरे ही महल में चलो। मेरा एक राजकुमार है सुभानु । बड़ा ही सुन्दर, गुणवान, विद्यावान और चारित्रवान है । अनेक नृप अपनी अपनी कन्याओं का विवाह उस से रचाने को उतावले हो रहे है । जब से उसने तुम्हें देखा है, तुम्हारे रूप पर ही अपना मन वार दिया है । तुम चलो ओर उसकी सहधर्मिणी बन जाओ।" सत्यभामा ने अपनी मनोकामना को प्रगट करते हुए कहा । परन्तु सुन्दरी न बोली तब सत्यभामा ने एक और दांव फैंका - द्वारिका नरेश श्रीकृष्ण महाराज का नाम तो तुमने भी सुना होगा, बड़े ही बलशाली तथा प्रतापी यादव वशी नरेश हैं। उन्होंने ही कस जैसे बलिष्ठ का वध किया है, उनके सामने कितने ही नरेश हाथ वाधे खड़े रहते हैं। उनके पांचजन्य की ध्वनि सुनकर अच्छे अच्छे शूरवीरों की छाती दहल जाती है। सुभानुकुमार उन्हीं की आखों का तारा है । उसके साथ रह कर तुम वास्तव में अपने पर गर्व कर सकती हो। मैं उसकी मां हू । तुम्हें एक पुष्प की तरह रक्खू गी । तुम्हे कभी कोई कष्ट नहीं होने दूँगी ।" " सुन्दरी ने कहा - " रानी जी । आपकी बातों पर मुझे विश्वास है । श्रीकृष्ण महाराज की ख्याति दूर दूर तक फैली है। पर मेरे पिताजी स्वयवर रचाने की इच्छा रखते हैं ।" सत्यभामा ने उत्साह पूर्वक कहा - "तो फिर मैं दावे के साथ कहनी कि स्वयवर मे भी तुम राजकुमार सुभानु को ही वरमाला पहनातीं । मेरे साथ चलो उसे देख लो । यदि तुम्हारा हृदय स्वीकार
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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