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________________ जैन महाभारत ५१२ पहले महल में पहुँचे और अपनी विद्याओं के चमत्कार से महल वालों को चकित करने के लिए कितने ही कौतुक किए। तब रुक्मणि समझ गई कि आज उसका लाल उसे मिलने वाला है । प्रद्युम्न कुमार ने अपनी विद्या के बल से जितने चमत्कार दिखाये, उनकी कथा कुछ ग्रन्थों में बहुत ही विस्तार के साथ लिखी गई है । पर हम यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त समझेंगे कि नगर में कुमार की विद्याओं के चमत्कार से यह बात प्रसिद्ध हो गई कि कोई नवीन शक्ति नगर में आगई है । सत्यभामा को कुमार ने माया विप्र का वेष धारण कर छकाया । रुक्मणि भी पहले उसे न पहचान सकी । अन्त में जब नारद जी वहाँ आये तब उसे पता चला कि चमत्कारी युवक उसी का पुत्र है । नारद जी के परिचय दे देने पर अपने स्वरूप मे आ कुमार प्रेम पूर्वक माता के चरणों में लिपट गया । रुक्मणि का हृदयसुमन खिल उठा । कहते हैं कि उस समय रुक्मणि के स्तनों से भी पुत्र वात्सल्य के कारण दूध की धारा बह निकली। उसने उसी समय पुत्र को गले लगा लिया और हर्षाश्रुओं से उसका शिर भिगो डाला । पश्चात् कुमार को श्री कृष्ण के दर्शन करने की उत्कृष्ठा हुई, पर नारद जी ने बीच में ही मना कर दिया । वे कहने लगे कुमार | पराक्रमी पुरुष के पास इस प्रकार तुम्हारा जाना योग्य नहीं कुछ पहले उन्हे पराक्रमी दिखाओ | "तो फिर उन्हें कैसा पराक्रम दिखाना चाहिये ?" कुमार ने प्रश्न किया । रुक्मणि का अपहरण करके यादवचन्द्र को पराजित कर पश्चात् कुलकरों को वंदन करो ।" नारद जी ने उपाय बताया । इस योजना को देख रुक्मणि किसी अज्ञात भय की आशंका से कांप उठी, वह बोली- आर्य ! ऐसा न करो, अधिक हैं मेरे कारण कुमार के शरीर को पीड़ा फल स्वरूप मुझे परितापन होगा ।" यादव बलवान पहुँचेगी और उसके रुक्मणि तू नहीं जानती प्रद्युम्न के प्रभाव को नारद कहते गये, इसके एक प्रज्ञप्ति नामक विद्या है जिसके सहारे से सहस्रों वीरों और एव हजारों योद्धाओं को परास्त करने में समर्थ है ? फिर भला यादवां
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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