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________________ ५०४ जैन महाभारत marwad mmmmmmmmmmm तुम इतने कठोर हृदय वाले नहीं हो कि उसे जिसे तुमने सदा आदर की दृष्टि से देखा है, जिसकी समस्त आशाओं को शिरोधार्य किया है, निराश करके रह जाओ। मुझे आशा है कि तुम्हे मेरे हाथ जोड़े की लाज आई होगी।" __कुमार के बैठते बैठते ही उसने यह सारी बाते कह डालीं । कदाचित् उसे विश्वास हो गया था कि कुमार उसकी इच्छापूर्ति का निश्चय करके ही लौटा है। कुमार ने कहा-"आपकी आजा को सदा मैंने बिना किसी प्रकार की अवहेलना के, सिर आखों पर लिया है। आशा है आपको आज तक मेरे से कोई शिकायत नहीं हुई होगी।" कुमार के लहजे मे विनयभाव दीख पड़ता था, उत्साहित होकर कनकमाल बोली--"नहीं। नहीं ! कभी तुम्हारी ओर से ऐसी बात नहीं हुई जिससे मुझे निराशा का मुख देखना पड़े। तुम्हारे स्वभाव को देखकर ही मैंने अपनी यह इच्छा भी निस्संकोच कह दी थी।" ____ मन ही मन कुमार उसके इन शब्दो से घृणा कर रहा था, पर प्रत्यक्ष में वह बोला-माता । यदि मैं अब तक आपकी जो भी तुच्छसी सेवा कर पाया हूँ, जिससे आप मेरे पर हार्दिक प्रसन्न हैं। तो कोई ऐसी वस्तु मेरे लिए दो जिससे मैं जीवन पर्यन्त सुख से रह सकू, मेरा जीवन सफल हो जाय, जैसे कि पहले पर्वतशिला से लाकर पालनपोषण कर मेरे पर महान उपकार किया है, जिससे मैं लाखों जन्मो तक सेवा कर के भी उपकृत नहीं हो सकता, उसी भांति और अनुग्रह कीजिए जिससे आपकी स्मृति और एहसान जीवन पर्यन्त मेरी आत्मा से अलग न हो। कुमार की बात सुनकर रानी बड़ी प्रसन्न हुई, उसका हृदय कमल खिल गया; आशा का टिमटिमाता दीप स्थिर गति का स्थान लेने लगा। उस ने सोचा कुमार अब प्रलोभन में आ सकता है और इस समय इस की मांग भी है अत मेरी इच्छापूर्ति का इस से बढ़ कर स्वर्णिम अवसर और नहीं हो सकता । मेरे पास रही हुई रोहिणी और प्रज्ञप्ति जो विद्याधरों को दुलेभ है उसे दे देनी चाहिए। ऐसा सोच कर वह बोली-कुमार | जिस प्रकार मैंने पहले तेरे प्राण बचाये हैं तुम चाहे स्वीकार करो अथवा नहीं यह तुम्हारी इच्छा रही, पर मैं तो एक अभूतपूर्व शक्ति देती हूँ जो प्रत्येक संकट के समय तुम्हारी रक्षा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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