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________________ प्रद्युम्न कुमार ४६५ - "मा। आज आपने मेरी आँखें खोल दी।" पुत्र बोला ।-- . "नहीं आखें तुम्हारी अभी कहां खुली हैं । खुलेंगी तब जब कि अवसर हाथ से निकल जायेगा । नाग के निकल जाने पर तुम लकीर पीटा करना । याद रक्खो, मैं तो ससार से चली जाऊगी, पर तुम दासों की भाँति जीवन व्यतीत करोगे । बस मुझे चिन्ता है तो यही। उसकी माता ने उसे उत्तेजित करने के लिए कहा। ___ उसी समय उसे क्रोध चढ गया वह बोला-"माँ | तुम विश्वास रक्खो । मैं शीघ्र ही मदन का काम तमाम कर दूगा। आज आपने वास्तव में मुझे सचेत करके बहुत ही अच्छा किया।" तभी से वह प्रद्य म्न कुमार की हत्या करने के लिए षड्यन्त्र रचने लगा । हृदय में कपट रखकर उसने प्रद्य म्न कुमार से प्रीति बढ़ाई, और उसे अपने को घनिष्ट मित्र दर्शाया । जब घनिष्ट सम्बन्ध हो गए तो एक दिन भोजन में विष मिलाकर खिला दिया, पर जब विष भी प्रद्युमन के लिए अमृत सिद्ध हुआ तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। फिर कितने ही दुष्टों को उसके पीछे लगा दिया, यह षड्यन्त्र भी व्यर्थ सिद्ध हुआ। तब वह भ्राता रूपी शत्रु प्रद्युम्त कुमार को वैताढ्य गिरि पर ले गया और उसके उस शिखर पर उसे पहुचा दिया जहाँ दैत्यों का निवास स्थान था, ताकि प्रद्युम्न कुमार उनके द्वारा मारा जाय । किन्तु उसे प्रद्युम्न कुमार की दिव्य शक्ति का ज्ञान नहीं था। अत वह वहाँ से किसी प्रकार बचकर पर्वतीय प्रदेशों में ही भ्रमण करता रहा । मार्ग में उसे अनेक यातनाए भुगतनी पड़ी। किन्तु फिर. भी उसने साहस न तोडा और यह सोचते हुए कि 'भलाई के पथ पर बुराई के काटे है विश्वास दिल को न हर्गिज उगेगे। सबक साधुता का सिखाता है यही, कि बुराई का बदला भलाई से देना । संकटों को पॉच तले दवाते हुए आगे पग बढाया। कुमार को रति की प्राप्ति आगे बढते हुए मार्ग में उन्हें एक दुर्जय नामक वन आया। यह वन अत्यन्त विशाल था जिसमें पुष्प तथा फल युक्त सघन वृक्ष थे।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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