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________________ ४६४ जेन महाभारत उन्होंने वह सारी कथा कह सुनाई जो सीमंधर प्रभु ने सुनाई थी। रुक्मणि तथा श्री कृष्ण को नारद जी के मुख से वह कथा सुनकर बहुत सन्तोष हुआ। उनके हृदय में एक नवीन आशा का संचार हुआ। रुक्मणि अशोक के सहारे से प्रसन्न रहने लगी। श्री कृष्ण आशा के झकोरों में भविष्य की कल्पनाए करके प्रफुल्लित हो उठते । इधर सोलह वर्ष पूर्ण होने की प्रतीक्षा से रुक्मणि के दिन व्यतीत होने लगे, उधर प्रद्य म्न कुमार दूज के चन्द्रमा के समान उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होने लगा। ज्यों ही उसने युवावस्था में पग रखा विशेष विद्वान अध्यापकों द्वारा शिक्षा दिलाई जाने लगी। कितनी ही शिक्षाए उसने गुरु चरणों में रहकर श्रद्धा पूर्वक प्राप्त की। जब वह शस्त्र विद्या मे पारगत हो गया ता तरुण प्रद्य म्न कुमार विकट सेना लेकर चहुँ ओर विजय पताका फहराता घूमन लगा, कितने ही राजाओं को परास्त करके बहुमूल्य वस्तुए घर लाने लगा । लोग विजेता युवराज की भूरि भूरि प्रशसा करते और याचक जन उसकी विरुदावली गाते । कुमार की मृत्यु का षड़यन्त्र । प्रद्युम्न कुमार की द्विमाता उसकी पुण्यवृद्धि को देखकर सोचने __ लगी कि मेरे पुत्र तो इसके सामने कुछ भी नहीं रहे। उन्हे तो कोई पूछता ही नहीं । यह सोचकर वह चिन्तित रहती, इसी चिन्ता से ईर्ष्या अंकुरित हो गई । और एक दिन उसने अपने एक पुत्र को बुलाकर कहा-"सिंहनी एक पुत्र को जन्म देकर निर्भय रहती है। पर गधी दस पुत्रों को जन्म देकर भी बोझ से लदती ही है। तुम बताओ मैं सिंहनी सम हूं अथवा गधी समान ?" इस विचित्र प्रश्न को सुनकर पुत्र बोला-"मां मैं आपकी बात समझ नहीं पाया।" "बात तुम अब नहीं समझोगे, उस समय समझोगे जब प्रद्य म्न कुमार राज्यपाट सम्भाल लेगा और तुम्हें दासों की भॉति उसके सामने सिर झुका कर खड़े रहना पड़ा करेगा। और तुम्हें महल मे कोई पूछेगा भी नहीं । अर्थात् मैं गधी के समान हो जाऊगी और तुम · " उस की मॉ ने गम्भीर एव रोष के सयुक्त भावों को मुख पर लाते हुए हा।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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