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________________ जैन महाभारत - सफल हो गई थी। वे बोले- "वह दिन तो कदाचित तुम न भूली होगी जब मै तुम्हारे यहा आया था और तुमने सीधे मुह बात तक न की थी, बल्कि दर्पण मे मेरा चेहरा देखकर मुझे राहु बताया था। मेरा उपहास किया था ?" सत्यभामा बहुत लज्जित हुई । वह कुछ भी उत्तर न दे पाई नारद जी ने स्वय ही कहा-"तो फिर उसी अपमान का परिणाम है। याद रख कि अपने रूप, यौवन यो सम्पत्ति किसी पर भी अभिमान करना बहुत ही अनुचित है उस का परिणाम भयंकर होता है । तू समझती थी कि तुझ से अधिक रूपवती कोई है हो नहीं और तेरे अतिरिक्त और कोई इस ससार मे ऐसी है ही नहीं जिस पर श्री कृष्ण हृदय से आसक्त हो जाएं।" सत्यभामा ने दुखित होकर कहा-"मुनिवर ! मेरी उस भूल का इतना कठोर दण्ड तो ठीक नहीं था।" ' सम्भव है तेरे पूर्व जन्म के किसी पाप का भी यह दण्ड हो" नारद जी बोले। "अब इसका कोई प्रतिकार तो बताइये ।" सत्यभामा ने पूछा। "प्रतिकार इसका क्या होता? बस तुम उसे भी अपनी बहिन समझो। ईर्ष्या और कुढ़न को अपने हृदय के पास भी मत फटकने दो।" इतना कहकर नारद जी चले गए। * सत्यभामा-रुक्मणि मिलन * कहते हैं कि एक बार श्री कृष्ण ने रुक्मणि के प्रासाद में आने जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रतिबन्ध की सूचना सत्यभामा को भी मिली, किन्तु यह उसके लिए असह्य था, अतः वह उसके वहा जाने के लिए लालायित हो उठी उसने श्री कृष्ण के महल में पहुंचते ही नाना प्रकार के व्यंग कसने शुरू कर दिये । और रुक्मणि से मिलने के लिए अत्यन्त आग्रह करने लगी। __ सत्यभामा की इस उग्र उत्कण्ठा को देख श्री कृष्ण ने उसे उससे मिलाना स्वीकार कर लिया। वास्तव मे यह सब कुछ सत्यभामा को चिढ़ाने के लिए ही स्वॉग रचा गया था, क्योकि वह रुक्मणि को लाने तथा उसके रूप, लावण्य, शालीनता आदि उत्कृष्ट गुणो की प्रशसा सुनकर मन ही मन ईर्ष्या करती थी । वह नहीं चाहती थी कि उसके
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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