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________________ जैन महाभारत मन ही मन शिशुपाल ने भीष्मक को गालियाँ दीं और रुक्म के प्रति आभार प्रगट किया । इसके पश्चात् सरसत ने रुक्म का संदेश कह सुनाया । सारी बातें अच्छी तरह समझाकर बता दीं। और साथ ही पत्र भी दे दिया । जिसमें लिखा था । ४५४ प्रिय मित्र ! अपने 1 निश्चयानुसार रुक्मणि को तुम्हारी सह धर्मिणी बनाने के लिए मैने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। पिता जी तक को मेरी हठ के आगे तटस्थ होना पडा है । वे तुम्हारे शत्रु कृष्ण के साथ रुक्मणि का विवाह रचाने का निश्चय कर चुके थे । पर मैं यह कैसे सहन कर सकता था कि मेरे मित्र का वैरी मेरी बहिन का पति बने । मैं चाहता हूं कि शीघ्रातिशीघ्र विवाह सम्पन्न हो जाए अतएव माघ शुक्ल अष्टमी को विवाह की तिथि निश्चित की गई है । ज्योतिषी बताते हैं कि विवाह में कुछ विघ्न पड़ेंगे, सम्भव है पिताजी की प्रेरणा से अथवा स्वयं ही वह आये और विघ्न डाले, अतएव अपनी सेना और अस्त्र शस्त्र सहित आयें, एक दिन पूर्व ही यहाँ पहुच जायें तो अच्छा हो ताकि सुरक्षा का उचित प्रबन्ध हो सके। इस अवसर पर हम दोनों बैरी को घेर कर यहीं मार डालें तो जीवन भर का कांटा ही निकल जाए ।" शिशुपाल ने पत्र पढ़ा और इसे कृष्ण वध के लिए उपयुक्त अवसर समझ कर अट्टहास कर उठा । लग्न का सारा सामान आदर पूर्वक लिया और सरसत को उचित उपहार व पुरस्कार दिया । * नारद जी कीं माया इधर शिशुपाल रुक्मणि को प्राप्त करके आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने के स्वप्न देख रहा था, और यह सोचकर ही कि रुक्मणिसी किन्नर वीरांगना अथवा अप्सरा उसकी धर्म पत्नी बनेगी । परन्तु दूसरी ओर रुक्मणि श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने की कामनाए कर रही थी । उसके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग उत्पन्न करने का सारा श्रेय नारद मुनि को था । बात यह थी कि एक बार नारद मुनि द्वारिका में अवतरित हुए । उन्होंने श्रीकृष्ण के राज दरबार में दर्शन दिए । बलराम और कृष्ण दोनों ने उनका उचित आदर सत्कार किया । पश्चात् नारद जी सत्यभामा को देखने की इच्छा से अन्तःपुर मे चले गये । उस समय
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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