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________________ रुक्मणि मंगल .४५३ लग्न आने का सन्देश भिजवाया। सुनते ही शिशुपाल का मन मयूर नत्य कर उठा। उसकी आँखों में रुक्मणि जैसी परम सुन्दरी का सोलह शृगार के साथ उसके महल मे आगमन का काल्पनिक चित्र धूम गया। वह दूल्हा बनेगा, सज धज से बरात जायेगी, चारों ओर नत्य और सगीत की सभाए सजेंगी। कितनी ही ऐसी मधुर कल्पनाए अनायास ही उसके मन में उठीं। और हर्प विभोर होकर उसने द्वारपाल को आदेश दिया कि आगन्तुक को आदर सहित महल में ले आओ। सरसत ने ज्यों ही महल में पग रक्खा, किसी से छींक दिया। अचानक उसके पग रुक गए और एक दम से यह विचार उसके मस्तिष्क में घूम गया कि अपशकुन ने यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोडा अवश्य ही यह वेल सिरे नहीं चढेगी । फिर भी अब वह क्या कर सकता था । हठात् उसके पर आगे बढ़ गए। शिशुपाल ने उसका बहुत आदर सत्कार किया । जिसके उत्तर में सरसत ने आशीर्वाद दिया। और बोला-"मैं कुन्दनपुर से आया हूँ और भीष्मक नप की शीलवती कन्या रुक्मणि का आपके साथ विवाह निश्चित करने के लिए लग्न लाया हूँ।" "अहो भाग्य । हम सहर्ष स्वीकार करेगे।" शिशुपाल ने कहा । "ऐसी ही रुक्म को आशा भी थी।" सरसत ने कहा। "कहिए महाराज भीमक तो सकुशल, स्वस्थ एव प्रसन्नचित्त हैं ?" शिशुपाल ने पूछा। "हाँ वे सकुशल हैं । लेकिन इस विवाह में उनकी सम्मति नहीं है। वे चाहते थे कि रुक्मणि का विवाह द्वारकाधीश श्री कृष्ण के साथ हो पर कम कु वर ने उनकी बात न मानी । रानी जी भी अपनी कन्या का विवाह आप ही के साथ करना चाहती थीं, अतएव उन दोनों की इच्छा से में लग्न लेकर पाया हूँ।" सरमत ने कहा ।। "रुक्म मेरा घनिष्ट मित्र है वह समझदार पार बुद्धिमान युवक है।" शिशुपाल कदने लगा, पर श्राश्चर्य की बात है कि भीष्मक जैसे अनुभवी राजा ने कृष्ण ग्याले को कस पसन्द कर लिया । कोई कुलवान व्यक्ति भला कैसे अपनी कन्या को उस अहीर का दे सकता है।" __ "जी । यस यही बात तो स्कम ने भी कही । पर भीमक न माने और व स्मारिए के विवाह के मामले में तटन्य हो गए।" सरसत पोला।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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