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________________ AAAAAAAAAAA .AANANARAN ४४८ जेन महाभारत ...... .. . ...m..r उनके चरणो मे रखकर कहा था कि मेरा बालक तुम्हारी शरण है तुम चाहो तो यह ससार में सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। नैमित्तिक बताते हैं कि तुम्हारे हाथों ही इसका वध होगा, अतएव अब इस शरणागत को जीवन दान देना तुम्हारा ही काम है।" श्रीकृष्ण ने शिशुपाल की मां को विश्वास दिलाया था कि-"निन्यानवें वार अपराध करने पर भी मैं इसे क्षमा करुगा। परन्तु इससे अधिक अपराधों का इसे दण्ड भोगना पडेगा-"जब शिशुपाल ने होश सम्भाला और इसने अपने सम्बन्ध में भविष्यवाणी सुनी थी तो वह समझने लगा था कि ससार मे केवल श्रीकृष्ण ही उसके शत्रु हैं और ऐसे शत्रु हैं जिनके हाथो कभी भी उसके प्राणी पर आ बनेगी। अतएव वह उनके प्रति सदा ही वैरभाव रखता। वह उन्हें अपना काल समझता और उनसे अपनी रक्षा के लिए युक्तियां सोचता रहता। अन्त में जरासध को उनका शक्तिशाली बैरी समझकर उससे जा मिला। __ रुक्म श्रीकृष्ण को अपने मित्र का वैरी समझता था। इसी लिए वह अपनी बहिन के पतिरूप में श्रीकृष्ण को देखना भला कब सहन कर सकता था। भीष्मक ने कहा--"बेटा । तुम अभी युवक हो, समझदारी से काम नहीं लेते । तुम ने श्रीकृष्ण के बचपन को देखा पर उनके गुणों पर तनिक भी विचार नहीं किया।" रुक्म का हठ रुक्म ने आवेश में आकर कहा.-.-"यह दोष क्या कुछ कम है कि वह अब तक तो ढोर चराता रहा । उसमें ग्वालों सी बुद्धि है। राजाओं या कुलवन्त लोगों की सी एक भी बात उनमें ढूढ़े नहीं मिलेगी।" ___"नहीं बेटा ! तुम्हें किसी ने बहका दिया है, भीष्मक ने गम्भीरता पूर्वक रुक्म को समझाते हुए कहा, श्रीकुष्ण आज के समस्त राजाओ में अधिक बुद्धिमान और बलिष्ट है । वे तुम जैसे युवकों को सौ बार पढ़ा सकते हैं। उन्होंने कस जैसे योद्धा को क्षण भर में मार कर अपना वीरता की धाक जमा दी है । उनका रूप दर्शनीय है, उनके तके अकाट्य होते हैं। वे न्यायप्रिय और दुखियों के रखवाले हैं। उन्हें अपनी कन्या देना स्वय अपना सम्मान बढ़ाना है।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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