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________________ रुक्मणि मंगल ४४७ न की। बल्कि नृप के निश्चय की सराहना की। परन्तु रुक्म ने कहा कि - "मुझे आपके इस निश्चय को सुनकर आश्चर्य हो रहा है। रुक्मणि एक श्रेष्ठ कुल की कन्या है वह एक अहीर पुत्र के हाथो में कैसे दी जा सकती है ? कृष्ण तो वर्षों अहीरों का जूठा खाते रहे । कल तक तो वे ग्वाले के नाम से प्रसिद्ध थे पशु चराना ही जिनका मुख्य काम था, अाज राजा बन गए तो क्या हुआ है तो ग्वाला ही । मैं अपनी बहिन उस चोर, नचैया और ढोर चराने वाले के साथ विवाह करने में अपना मत नहीं दे सकता । रुक्मणि के लिए कोई कुलवान् वर चाहिए।" सभी को रुक्म के इन शब्दों को सुनकर आश्चर्य हुआ किसी को को भी आशा नहीं थी कि श्री कृष्ण के सम्बन्ध में रुक्म के यह विचार होगे। हाँ उनमें से रुक्म की मॉ ऐसी थी जो रुक्म के शब्दों से विचार मग्न हो गई थी, वह अपने बेटे के शब्दों को तोल रही थी। भीष्मक नप श्री कृष्ण के सम्बन्ध में व्यक्त किए गए विचारों को सुनकर व्याकुल हो गए थे क्यों कि वे श्री कृष्ण के प्रशसक थे और नहीं चाहते थे कि अपने कानों से श्री कृष्ण के सम्बन्ध में ऐसे अनुपयुक्त विचार सुनें इतने कठोर शब्दों को तो उनका कोई शत्रु ही प्रयोग कर सकता है। दमघोप सुत शिशुपाल बात यों थी कि रुक्म की शिशुपाल के साथ घनिष्ट मित्रता थी। और शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपना शत्रु समझता था अतएव मित्र का शत्रु अपना शत्रु की युक्ति के आधार पर रुक्म भी श्रीकृष्ण को अपना शत्रु समझना था। चन्देरी पति शिशुपाल भी रुक्म की भांति ही उद्दण्ड और अहकारी था, वह इतना मदाध था कि न्याय और अन्याय के बीच की विभाजन रेखा उसके विचार से मिट चुकी थी, वह जो कुछ चाहता उसे ही ठीक उचित और न्यायपूर्ण मान बैठता । क्रोध उसका प्रिय दुर्गुण था, वह क्रोध में श्राफर अनुचित से अनुचित कार्य कर बैठता । एक ही स्वभाव फे कारण शिशुपाल और रुक्म में बहुत घुटती थी। शिशुपाल का जर जन्म हुआ था, तो ज्योषियों ने उसकी जन्मपुण्डली बनाते हुए जो भविष्यवाणी उसके सम्बन्ध मे की थी उसमें बताया था कि शिशुपाल का वध श्रीकृष्ण के हाथों होगा । जव शिशुपाल की माता ने यह भविप्यवाणी सुनी थी तो वह काप उठी थी। वह शिशुपाल को लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुची थी। और शिशुपाल को
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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