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________________ कृष्ण वध का प्रयत्न ४३५ mmmmmmmmmmmmmmmm __ "पिता जी । मुझे बुरी तरह अपमानित किया गया है। मैंने यादवों की सभा में शपथ ली है कि बलराम और कृष्ण की बोटी बोटी नुचवा दूगी। अब आप ही का मुझे आसरा है, आप ही मेरे पति की हत्या का बदला ले सकते हैं । क्या मैं विधवा होकर अपने सुहाग के उजाड़ने वालों को अपने सामने फूलता फलता देख सकती हूँ ?" जीवयशा ने पिता के क्रोध को और भी उभारने की चेष्टा की। "मैंने तीन खण्ड में अपनी विजय पताका लहराई, जरासध ने क्रोधावेश में कहना प्रारम्भ किया, मैंने हर उस नरेश का सिर कुचल दिया जिसने मेरे सामने शीश नहीं झुकाया । आज तक मेरे बन्दी गृह में कितने ही ऐसे नृप सड़ रहे हैं जिन्होंने तनिक सी भी उदण्डता दर्शाई । मैंने किसी को सिर ऊचा करके खडे होने का अवसर नहीं दिया । कितने ही नृपों के मुकुट मेरी ठोकरों मे पडे । मैंने अपने बल का डका सारे विश्व में बजाया। फिर यादवों की क्या मजाल कि मेरे सामने सिर उठा सकें। बेटी । तुम विश्वास रक्खो कि मैं उन दुष्टो के मुण्ड काटकर अपनी खड्ग की प्यास बुझाऊगा।" ___"यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आज तो मुझे केवल सुहाग के लिये रोना पड़ रहा है, एक दिन आपके लिए भी अश्रुपात करना होगा?" जीवयशा ने अश्रुपात करते हुए कहा। ___ "क्या बकती हो ? क्या कोई मेरे सामने भी आँख उठा सकता है ?" ____ "पिता जी | अतिमुक्त मुनि ने ऐसी ही भविष्यवाणी की है । उन की एक भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो चुकी है । उसी की तो यह सारी आग लगाई हुई है।" जीवयशा ने कहा । एवता मुनि का नाम सुन जरासध चौंक पडा । "क्या कोई मुनि भी इस काण्ड के पीछे है ?" पिता के प्रश्न का उत्तर देते हुए जीवयशा ने अतिमुक्त मुनि की भविष्य वाणी से लेकर कस वध तक की सारी कथा कह सुनाई। यह कथा सुनकर जरासघ बोला-"तो इसका अर्थ यह है कि इस सारे काण्ड में कस की ही एक भूल विशेषतया उसके नाश का कारण बनी।" "कैसी भूल ?"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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