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________________ केस वध ४१७ असफल होकर लज्जित हो अपने स्थान पर आ बैठे । उस समय बल आजमाने वाले नृपों का चेहरा देखकर हसी आ जाती थी। जब वे निराश हो जाते तो लज्जा, खेद, और पश्चाताप सभी एक साथ उनके मुख पर छा जाते और सुन्दर व कान्ति युक्त वदन भयानक व हास्यास्पाद बन जाते । एक जब परास्त होकर वापिस आता तो दूसरा जो उठता वह मन ही मन कहता-यह भी निर्बल ही निकला धनुष पर वाण ही तो चढ़ाना है, कोई पहाड़ थोड़े गिराना है, कैसा साहस हारकर बैठ गया, देखो मैं उठाता हूँ। पर जब वह स्वय धनुष को हाथ लगाता और अपनी समस्त शक्ति लगा कर डोरी खींचता, तो मन ही मन कहता--अरे बाप रे बाप । यह धनुष पाषाण शिला मे से काट कर तो नहीं बनाया गया ?" अपने बल का प्रदर्शन कर वह भी अपने स्थान पर नीची दृष्टि किए जा बैठता और जब उसका पास वाला चलता धनुष पर बल आज़माने तो मन ही मन कहता-"चल भाई, तू भी पत्थर से सिर टकरा।" वास्तव में धनुष इतना भारी था कि पहल तो उसे उठाने का ही प्रश्न उठता था। धीरे धीरे अनावृष्टि का नम्बर आ गया । वह अकडता हुआ मूछों पर ताव देकर आगे बढ़ा, उसको पूणे श्राशा थी कि वह तो अवश्य ही बाजी मारेगा। शीघ्रता से जाकर ज्यों ही घनुष उठाया, और साथ ही बाण चढ़ाने के विचार से एक पैर पीछे चलाया, फिसल कर गिर पड़ा। सभी उपस्थित नरेश एक दम हंस पड़े, वे भी जो परास्त हो चुके थे और वह भी जिन्होंने अपना वल नहों आजमाया था । सत्यभामा भी अपनी हसी न रोक पाइ, खिलखिला कर हस पडी। श्री कृष्ण न चाहते हुए भी हस पड़े । उसी समय सत्यभामा को दृष्टि उन पर पडी । बस एक ही दृष्टि में सत्यभामा उनके रूप पर मुग्ध हो गई, सोचने लगी कि यह युवक मेरा पति बने वो क्या ही अच्छा हो। भनाधृष्टि लज्जित हो, आत्मग्लानि और क्षोभ के सयुक्त भाव लिए अपने स्थान पर आया तो, कृष्ण को हसते देखकर मुमना गया, बोला, "वैसे ही दांत फाड़ रहे हो, तनिक हाथ लगाकर देखो दिन में ही तारे नजर आने लगते हैं हसना ही आता है या कुछ करने का पल भी है।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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