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________________ ३६४ जैन महाभारत गए थे, परन्तु तारागण तभी तक चमकते हैं जब तक सूर्य उदित नहीं होता । यदि अर्जुन अपने को मेरी टक्कर का समझता है तो मेरे सामने आये।" ___ कण की बात सुन कर दुर्योधन को अपार हर्ष हुया । वह मन में सोचने लगा-"आज अर्जुन और द्रोणाचार्य का गर्व चूर करने का अवसर आया है। इस अवसर से लाभ उठाना चाहिए। यदि किसी प्रकार अर्जुन और कर्ण परस्पर भिड़ जायें तो मुझे ज्ञात हो जायेगा कि कर्ण ने अर्जुन को परास्त कर दिया तो मैं अपनी योजना में सफल हो जाऊंगा और भविष्य में कभी भी पाण्डव मेरे मुकाबले में आने का साहस न कर सकेंगे, यदि यह दुस्साहस उन्होंने किया भी तो मैं उन्हें पछाड़ने में सफल हो ही जाऊगा। और यदि कहीं इसी मुकाबले में ही कर्ण अर्जुन को यमलोक पहुँचाने में सफल हो गया तो बिना किसी अधिक उधेड़बुन के ही मेरे रास्ते का कांटा निकल जायेगा और मैं निश्चिन्त होकर हस्तिनापुर का राज्य सम्भाल सकूँगा।" यह सोचकर दुर्योधन शत्रु के संहार का कभी न अवसर चूक । स्वप्न कभी न पूरा हो जो अवसर पर रहे मूक ॥ के अनुसार तुरन्त खड़ा हो गया और बोल उठा-"सज्जनों । आप लोग केवल अर्जुन की ही प्रशंसा करते थे, और समझते थे कि पृथ्वी पर अर्जुन से बढ़ कर कोई वोर है ही नहीं, पर अब आप को मानना होगा कि इस जगत में एक से एक बढ़कर वीर है। कर्ण ने जो चुनौदी दी है उसने सिद्ध कर दिया है कि संसार में ऐसे ऐसे वीर हैं, जिन के सामने अर्जुन तुच्छ है। यह मेरा मित्र कर्ण भी बड़ा ही वीर है । यद्यपि अर्जुन मेरा भाई है, मैं उसकी वीरता व कला का हृदय से प्रशंसक हूँ, पर जब वीरता और कला का प्रश्न आता है तो मैं पक्षपात करना वीरता और कला का अपमान समझता हूँ। जो किसी के स्नेह मे फसकर अन्य वीरों की ओर से आँख बन्द कर लेते हैं, वे वास्तव में कला की नहीं अपने स्नेह की प्रशसा भर करते हैं। मैं अर्जुन का भाई होते हुए जब कला का प्रश्न आता है तो कहने पर विवश हो जाता हूं कि अजुन कितना ही कुशल धनुधारी और कौशल
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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