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________________ कर्ण की चुनौती ३८६ अश्वत्थामा के प्रति कोई द्वष नहीं था अतः उसके द्वारा गदा पकड़ते ही दोनों रुक गये और इस प्रकार भयंकर युद्ध ममाप्त हुआ। अर्जुन की परीक्षा जब सब राजकुमार परीक्षा दे चुके तो इन्द्र के समान तेजस्वी सूर्य के समान प्रकाशमान और सिंह के समान वीर अर्जुन से द्रोणाचार्य ने कहा । 'आओ, वत्स अब तुम्हारी बारी है। तुम ने साधारण धनुष विद्या का प्रदर्शन तो किया, अब विशेष विद्या की परीक्षा दो और अपनी अद्भुत कला प्रदर्शन करो।" प्राचार्य का आदेश पाकर स्वर्णिम कवच पहने हुए वीर अर्जुन परीक्षा स्थल में आये । अर्जुन की शान निराली थी उसे देख कर लोग आपस में कहने लगे-"यह धनुर्धधारी हो कुन्ती का पुत्र अर्जुन है। अब तक तो अर्जुन की प्रशसा ही सुनी थी अब देखें वह कैसा वीर है।" द्रोणाचार्य ने मच से समस्त दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहा"यह वह वीर है जिस पर हस्निापुर नरेश जितना गर्व भी करें कम हो है। आप इस वीर के कौशल, इस की कला को देख समझ जायेंगे कि वीर अर्ज न राजकुमारों में अद्वितीय है। द्रोणाचार्य की घोषणा पर चारों ओर कोलाहल मच गया अर्जुन की प्रशसाएं होने लगीं। लोग आपस में उसकी चर्चा करने लगे। कोलाहल सुन कर धृतराष्ट्र ने विदुर से पूछा-यह कोलाहल क्यों हो रहा है " विदुर बोले-अब अर्जुन अपनी परीक्षा देने आया है। . धृतराष्ट्र -"अजुन का कौशल देखने के लिए लोग इतने लालायित हैं । बड़ी प्रसन्नता की बात है।" अजन ने सभी को प्रणाम कर के कहा-मैं जो कला प्रदर्शित कर रहा हूँ, उस में मेरा कुछ नहीं, वरन सब कुछ गुरुदेव का है। मैं तो कठपुतली हूँ, मुझ में जो कुछ है वह गुरुदेव ही का है । यह सारी कला उन्हीं की कृपा से मिली है। जिन की वस्तु है उन्हीं की आज्ञा से मैं आप के सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ। प्र
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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