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________________ ३६६ द्रोणाचार्य का मुख देखना पड़ता है। सूर्य उदय होता है तो सस्त भी होना ही है। जब वह अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच जाता है, 'प्रस्त होने पल देता है। इसी प्रकार इपद का 'प्राज ने न बढा हसा है तो वह कभी घटेगा भी श्रीर आपकी प्रतिज्ञा भी पूरी हो जायेगी परन्तु उसने भापको वास्तविक शाति नहीं मिल सकती।" "श्राप सच कहते हैं महाराज | पर अन नाम-प्रण बदल नहीं सफना, पटा हुधा तीर पापिस नहीं पाता। द पद को एक बार नीचा हिरवाना ही होगा।" द्रोणाचार्य ने कहा। __ "जैसी प्रापकी इच्छा । भीम जी ने उनके दृट प्रण को सुनकर फदा, घय में आपसे अपने काम की बात कर । बात यह है कि कौरव पाएस्य कृपाचार्य में शिक्षा प्राप्त कर चुके । अब उन्हें उच्च शिक्षा की धावश्यकता है। मैं चाहता हूँ कि आप इस शुभ काय फो सम्भाले । हमें आप जैसा विद्वान् नहीं मिलेगा, इनी लिय में प्राप ने भेट करने का इच्छुक पा । क्या आप स्वीकार करेंगे।" "अत्यन्त प्रसन्नता के साध ।' द्रोणाचार्य याल, इन राजकुमारी मे उपयुक्त पात्र श्रीर कोन मिलेगा, जिन्हें देने मे मेरी विद्या मार्यकहो।" "तो पाज से पाप प्राचार्य हुए।" । द्रोण ने मौन स्वीकृति दे दी। और कौरव पाण्डय शुभ मुहर्त में द्रोणाचार्य को सौंप दिये गए । सुशिप्य एक दिन दोराचार्य धरने भासन पर विराजमान थे उनके एक नौ सार शिप्प, फौरव पारस्य, पर्ग और उनसरा पुत्र सारासामा (जो पुत्रदा ए हो शिप्य था) मामने बैठे थे । धर्म शिवा चल रही थी। पास में द्रोणाचार्य पोले माकी पोपों को नीपन, वन पनी लिए लानादि हमसे सरकी दर पनि होती है, पापी गयी पर भागात मी ६५ लाता है। प्रसार मानिनोको पनी समित भर शिक्षा देर विद्वान लाई मरदा हम पाट दा जबरमा वि स शिप्द दिनान, दान. गुयान, ए. पान और विधान हो, पेपल कि तो मना परिन नहीं
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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