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________________ ३६८ जैन महाभारत 1 ही चाहिए" इतना कह कर द्रोण ने द्र पद के साथ वीते सारे वृत्तान्त को कह सुनाया । और अन्त में कहा कि द्र पद ने इतना घोर अपमान किया है कि उससे मैं व्याकुल हो उठा हूँ । यदि वह मेरे बाण मारता तो उससे कदाचित मैं इतना व्याकुल न होता जितना वचन के वार्णो से मुझे आघात पहुँचा है । वे मेरे कलेजे में अब भी ज्यों के त्यों चुभे हुए हैं। भीष्म ने द्रपद की धृष्टता की कथा सुनी तो उन्हें भी उस पर क्रोध आया पर वे विवेकशील महाबली थे । शाति पूर्वक बोले "हे विद्यावान् ! द्रपद के शब्दों से आप इतने व्याकुल क्यों हो गए । आप तो विवेकवान और विद्वान हैं। कहीं गधे के लात मारने पर अपने विवेक से हाथ थोड़े ही घोलिए जाते हैं । आप को क्षमाशील होना चाहिए | उसे एक बिवेकहीन व्यक्ति की दुष्टता समझ कर क्षमा कर देना चाहिये था । कहीं आपने उसको दुष्टता के प्रतिशोध के लिए कोई प्रण तो नहीं कर लिया ?" "महाराज ! कुछ भी हो, मैं एक मनुष्य हूं। उसके वाग्वाणों से जो मुझे असह्य दुख पहुंचा उसने मेरे हृदय को ज्वालामुखी की भांति TET दिया और उसी समय मैंने प्रण भी कर लिया" द्रोण ने कहा । उस समय उनके मुख पर उत्तेजना के भाव नहीं थे । किन्तु वे गम्भीर थे जैसे अपने से उच्च व्यक्ति के सामने अपने किये कृत्य की कहानी सुना रहे हों । "क्या है वह प्रण ?" भीष्म जी पूछ बैठे । "मैंने उसी दुष्ट के सामने प्रतिज्ञा की है कि उसे अपने शिष्यों से बंधवा कर मंगवाऊगा और वह गिड़गिड़ाकर मुझ से क्षमा मांगेगा और कहेगा कि आप मेरे मित्र हैं, आधा राज्य आपका है । तब मैं उसे छोडूंगा । इस प्रतिज्ञा को पूर्ण किये बिना अब मुझे शांति नहीं मिलेगी " 3 भीष्म जी ने सुना तो वे अधिक गम्भीर हो गये, कहा, विद्वद वर । आपने यह प्रतिज्ञा करके अच्छा नहीं किया । इससे आपको आत्मिक शांति नहीं मिलेगी । प्रतिशोध की भावना ही हिंसा पर आधारित है । और हिंसा कभी शांति प्रदान नहीं करती । उससे तो वैर ही बढ़ता है और वैर शांन्ति को जन्म देता है । यद्यपि हर उन्नति को अवनति
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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