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________________ ३६६ जैन महाभारत द्रोणाचार्य के नाम से सभी जानते हैं। वन्दना नमस्कार के उपरान्त उन्होने कहा "द्रोणाचार्य जी। आप के दर्शनों के लिए मै कितने दिनों से इच्छुक था, यह मैं ही जानता हूँ। अहो भाग्य जो आप स्वय ही इस ओर पधारे।" "भीष्म जी । आप जैसे गुण ग्राहक लोगों की संसार में बहुत कमी है, द्रोणाचार्य कहने लगे, मुझे स्वयं आप से भेंट करने की इच्छा थी। आज आप ने स्वयं पधार कर मेरी अभिलाषा पूर्ण की। इस लिए मैं आप का धन्यवाद किए बिना नहीं रह सकता। "अप के इस ओर अनायास ही निकल पाने का कोई कारण तो होगा!" भीष्म जी ने प्रश्न किया। "बस यही कि मैं आप से भेट करने को उत्सुक था।" द्रोणाचार्य बोले। "तो कोई सेवा, जो मेरे योग्य हो, बताइये" भीष्म जी ने कहा । "मैं आप से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ, द्रोणाचार्य ने अपने उद्देश्य को व्यक्त करना आरम्भ करते हुए कहा, प्रश्न यह है कि क्या ससार से विद्या और विद्वान समाप्त हो जायेगे? और विद्या तथा राज्य, सम्पत्ति में कौन आदरणीय है, कौन उच्च ?” __"प्राचार्य जी | इस प्रश्न का उत्तर तो चमकते सूर्य के समान स्पष्ट है, सर्वविदित है, भीष्म जी को उनके प्रश्न पर कुछ आश्चर्य हुआ, पर वे प्रश्न के मूल मे किसी रहस्य के विद्यमान होने की आशा से बोले, विद्या कभी समाप्त नहीं हो सकती, जब तक आप जैसे विद्वान् है, विद्या को समाप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। आप जैसे विद्वान् उस मशाल की भांति हैं जो कितनी ही दीप शिखाओं को प्रज्वलित करती है। आप के द्वारा कितने ही अन्य विद्यावान बनेगे और उनके द्वारा फिर कुछ ओर । इसी प्रकार यह लड़ी चलती रहेगी। विद्या के बिना संसार अवकारमय हो जायेगा । अत विद्या को समाप्त नहीं होने दिया जायेगा। वह अमर है। इसे समाप्त करना किसी की भी शक्ति के बाहर की बात है। राज्य तथा विद्यावान में कौन बडा है, इस प्रश्न का उत्तर भी स्पष्ट है । नरेश चाहे ससार भर का ही क्यो *' न हो विद्वान् के सामने तुच्छ है। मेरी बुद्धि तो यही कहती है।" "बुद्धि तो सभी की यही कहती है, पर यह सभी कहने पर की बातें
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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