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________________ द्रोणाचार्य ३६५ कह सुनाया । कृपी ने सुना तो उसके हिये में भी क्रोधाग्नि धधक उठी । भला वह यह कंमे सहन कर सकती थी कि उसके विद्वान पति को कोई अपमानित करे। दोनों सोचने लगे पद से बदला लेने का उपाय तभी उन्हें याद प्राया कि कृपाचार्य उनके साले कौरव पाण्डुओं के गुरु है और केरल हस्तिनापुर के नरेश के सहयोग से ही वे द्र. पद से बदला ले सकते हैं। प्रत कुछ दिनों बाद चले गये कृपाचार्य के आश्रम को । य तक अश्वत्थामा अपने पिता की शिक्षा से धनुष विद्या में प्रवीण हो चुका था | दो कृपाचार्य के पास जा रहे थे, हस्तिनापुर नरेश और उनके बीच सम्बन्ध स्थापित हो । भीष्म जी की ओर उनकी आँख लगी थी। वे तो हर समय द्रपद द्वारा किए गए अपमान के पहले के लिए ही व्याकुल रहते । ठीक ही कहा है - वाया दुरुत्तारिण दुरुद्धराणि । येराणुबन्धीणि महव्भयाणि ॥ लोहे को तीर चुभ जाये तो निकाले जा सकते हैं। उनका घाव भी मिट जाता है । पर वचन रूपी तीर एक दम असहाय होते हैं वे जब चुभ जाए तो उनका निकालना बहुत कठिन होता है। वे वैर की परम्परा पढ़ाते हैं। और ससार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। अतः शास्त्रों ने भाषा समिति पर जोर दिया है। बिना विचारे बोले हुए शब्द बड़े पदे अनर्थ उत्पन कर देते हैं। भीष्म और द्रोणाचार्य द्रोणाचार्य के कृपाचार्य के आश्रम में आने का सम्वाद सुन कर भीष्म पितामह को अपार हर्ष हुआ । उन्होंने सुन रखा था कि वर्तमान युग में द्रोणाचार्य सा शस्त्र तथा शास्त्र विद्या का विद्वान् और कोई नहीं है। महावली भीष्म प्रत्येक गुणवान और विद्यावान व्यक्ति का आदर करते थे व द्रोणाचार्य के आगमन की बात सुन कर वे उन दर्शनों के लिए लालायित हो गये और चल पड़े कृपाचार्य के आश्रम बी डोर | द्रोणाचार्य का नाम उन्होंने सुना था, पर भेंट कभी न हुई थी । किन्तु यही उन्होंने द्रोणाचार्य को देखा उन के ललाट पर विद्यमान् सेज को देख कर वे समझ गए कि वही हैं वे महान् विद्वान् जिन्हें
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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