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________________ ३४३ विरोध का अकुर थी, परन्तु आप ने गुरु बनना स्वीकार न किया था। मुझे तो विद्या अभ्यास की लगन थी, मैं निराश लौट आया और आपको हृदय से गुरु स्वीकार कर लिया, एकाग्रचित हो, आपका ध्यान लगाकर इस चट्टान के पास में बैठ जाता और बाण चलाने लगता । मेरा निशाना चूक जाता तो स्वय ही अपने गाल पर थप्पड़ मार लेता। और जब थप्पड़ जोर से लग जाता तो ऑखों में अश्रु भरकर मैं कहता, गुरुदेव अवकी वार क्षमा कर दो। भविष्य में ऐसी भूल न होगी' और फिर स्वय ही अभ्यास करने लगता। जितनी देर अभ्यास करता हृदय में आपको बसाये रहता, आपकी ओर ध्यान लगाये रहता, इसी प्रकार अभ्यास करते करते कई वर्ष व्यतीत हो गए, तब कहीं जाकर मैं इतना जान पाया हूँ। अतः हे गुरुदेव आप ही के पुण्य प्रसाद से मैंने यह विद्या प्राप्त की है । आप ही मेरे गुरुदेव है।" ___ एकलव्य की बात सुनकर द्रोणाचार्य ने अर्जुन की ओर देखा। जैसे कि मूक वाणी से कह रहे हों कि "देखा अर्जुन ! यह है इसकी विद्या का रहस्य-" फिर एकलव्य को सम्बोधित करते हुए कहा "एकलव्य | तुम्हें यह भ्रम है कि मैंने तुम्हें इस लिए शिक्षा देने से इकार कर दिया था कि तुम भील जाति के युवक हो । परन्तु वास्तविकता यह है कि मैं नहीं चाहता कि कोई शस्त्रविद्या सीख कर बेजबान जीवों पशु पक्षियों का शिकार करने में प्रयोग करे। मासाहारी को धनुष विद्या सिखाने में सबसे बडा यही भय बना रहता है। ___ "गुरुदेव ! हमारा तो जीवन ही जगलों में कटता है। शिकार खेलना ही हमारा पेशा है और इसी से हम अपनी उदर पूर्ति करते हैं।" एकलव्य ने कहा। द्रोणाचार्य ने कहा "एकलव्य । तुम्हारी धनुष कला को देख कर मुझे अपार हपे हुआ जी चाहता है कि तुम्हें इस अनुपम कला के लिये पुरस्कार दू । जय देखता हूँ कि मुझे गुरु स्वीकार करने वाला एकलव्य मास वह निरपराध जीवों को उदर पर्ति के लिए मार डालता से भी घृणा होने लगती है । तुम आज तक मर नाम का अभ्यास करते रहे। तुम्हारे पाप में मेरा ना यह सोच कर में रोमाचित हो उठता हूँ। तुमने "व्य मासाहारी है। डालता दे, मुझे अपने र नाम पर धनुष विद्या म मरा नाम भी सहायक घना तुमने वास्तय में इस पचिन
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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