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________________ ३४२ जैन महाभारत “सम्भव है उसने अपना नाम बदल दिया हो। "पर शब्दबेधी वाण चलाने की शिक्षा तो मैंने किसी को दी ही नहीं । देता भी किसे तुम जैसा बुद्धिमान, चतुर तथा तुम जैमा वीर युवक आज तक मेरा शिष्य हुआ ही नहीं" द्रोणाचार्य ने जोर देकर कहा । - "यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, वह कहता है मै द्रोणाचार्य का शिष्य हूँ, आप कहते हैं वह मेरा शिष्य है ही नहीं फिर इस का निर्णय कौन करे ?" अर्जुन ने विस्मित हो कहा। "तुम्हारे मन में बसी शका का निवारण करना मैं आवश्यक समझता हूँ, द्रोणाचार्य ने कहा, अतः अच्छा यही है कि तुम चल कर उसे मुझे दिखाओ । रहस्य अपने आप निवारण हो जायेगा।" अर्जुन द्रोणाचार्य को साथ लेकर एकलव्य के निवास स्थान की ओर चला। रास्ते में ही धनुष चलाने की ध्वनि आई । अर्जुन ठिठक गया, देखा तो एकलव्य एक चट्टान के पास बैठा एक वृक्ष के पत्ते पर वाण चला रहा था। उसने द्रोणाचार्य से उसकी ओर सकेत करके कहा "वही है एकलव्य । अब आप अच्छी तरह पहचान लीजिए।" द्रोणाचार्य एक वृक्ष की ओर से उसे देखने लगे । एकलव्य ने क्षण भर में ही कितने तीर चलाकर एक पत्त को पूरी तरह छलनी बना दिया । द्रोणाचार्य उसकी ओर बढ़े। जब वे निकट पहुँचे तो एकलव्य उन्हें देखकर तुरन्त दौड़ा और चरणो मे सिर रख दिया। कहने लगा "अहोभाग्य ! मैं आज अपने गुरुदेव के दर्शन कर रहा हूँ।" द्रोणाचार्य ने उसे उठाया, बारम्बार उसकी प्रशसा की, पीठ थपथपाई और पूछा "युवक ! हमने तो तुम्हे शिक्षा नहीं दी। फिर तुम हमें गुरुदेव कैसे कहते हो?" "नहीं गुरुदेव । मैंने तो आपकी कृपा से ही विद्या प्राप्त की है" "किन्तु हमे तो याद नहीं पड़ता कि हमने तुम्हें कभी शिक्षा दी हो" द्रोणाचार्य बोले। _ "बात यह है, गुरुदेव, एकलव्य रहस्योदघाटन करने लगा, आप को कदाचित याद हो कि मैं आपके पास विद्याभ्यास के लिए गया था । परन्तु आपने मुझे इसलिए शिक्षा देने से इंकार कर दिया था कि मैं भील जाति (नीच जाति) का युवक हूंX । मैंने बारम्बार विनती की Xसर्वज्ञ देव का सिद्धान्त तो ऊच नीच का भेद नही मानता । परन्तु द्रोणाचार्य ने इसलिए उसे शिक्षा देने के इकार कर दिया था वह मासाहारी था और उन्हे भय था कि शस्त्र विद्या प्राप्त करके वह जीवहत्या करेगा।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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