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________________ विरोध का अकुर ३३५ "आज आपने दर्शन देकर हमें कृत्य कृत्य कर दिया। आपके तो दर्शन ही दुर्लभ । पर अनायास ही श्राप आ निकले, हम जैसा सौभाग्यशाली भला और कौन होगा । आज तो ऐसा प्रतीत होता है मानों हमारे आँगन में कल्पवृक्ष प्रगट हुआ है ।"कृपाचार्य ने गद्गद् होकर कहा, और फिर कुमारों को सम्बोधित करके बोले "तुम भी बड़े सौभाग्यशाली निकले, जो इनके दर्शन कर पाये । इनकी सेवा करके पुण्य कमाओ । यह जिस पर प्रसन्न होंगे उसका जीवन सफल हो जायेगा।" सभी राजकुमारो ने उनके चरणों में शीश झुका दिया । अर्जुन और कर्ण ने तुरन्त आकर उनके पैर धोये। जिस समय अजुन पैर धो रहा था, कृपाचार्य ने कहा "बेटा अर्जुन | द्रोणाचार्य जी का पुत्र यह अश्वत्थामा ! धनुष विद्या में प्रवीण है, धनुप विद्या ही क्यों, सभी विद्याओं में निपुण है। बड़ा यौद्धा और बलवान है।" कृपाचार्य ने अश्वत्थामा की ओर सकेत करके वात कही थी, अतः अपनी प्रशंसा सुनकर अश्वत्थामा ने कृपाचार्य जी के चरण छुए। उन्होंने अश्वत्थामा को उठाकर छाती से लगा लिया। और कुमारों को सम्योधित करके बोले कुमारों । यह धनुर्वेद विद्या में सारे जगत में विख्यात हैं और इनके पूज्य पिता जी धनुर्वेद विद्या का विधान तैयार करने के लिए सर्व विख्यात हैं।" द्रोणाचार्य की सेवा में गुरु और शिष्य सभी लग गए और उन्हें वहीं अतिथि रूप में रहने पर प्रसन्न कर लिया । द्रोणाचार्य के शुभागमन का सन्देश जब भीष्म जी को मिला वे तुरन्त उनकी सेवा में भाये और कुमारों को शिक्षा देने की प्रार्थना की। कृपाचार्य, कुमारों और भीष्म जी सभी की विनती को वे स्वीकार न कर सके । और स्वय ही शिक्षा देने लगे। गुरु शिक्षा वर्मा के समान होती है । श्राकाश से पृथ्वी पर एक ही गति से समान जल ही गिरता है । पर भूनि के किसी भाग मे तो कितना ही जल एकत्रित हो जाता है । और कुछ स्थान ऐसे होते हैं जहा जल ठहर हो नहीं पाता । गुरु की शिक्षा भी सभी शिप्यों के लिए समान ही होती है, पर कुछ शिष्य तो गुरु शिक्षा को तुरन्त ग्रहण कर लेते है और यह पारम्वार प्राप्त करने पर भी लामान्वित नहीं हो पाते । इसी
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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