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________________ जैन महाभारत ३३४ गेंद बिन्ध गई। फिर एक और तीर मारा, एक और, एक और इस प्रकार तीर पर तीर मारते रहे । और तीरों का ऊंचा स्तम्भ सा बनता चला गया । कितने ही तीर मारे और अन्त में एक तीर का सिरा कुएं से बाहर निकल आया । ब्राह्मण ने उसे पकड़ा और ऊपर खींच लिया। सारे तीर गेंद सहित ऊपर खिंच आये। गेंद को बाहर फेंक कर बोले "अब समझ गए न कि गेद के कुए में गिरने और अनुष चारण का क्या सम्बन्ध है ?" सभी कुमार आश्चर्य चकित होकर देख रहे थे, सभी के सिर स्वीकारोक्ति में हिल गये -- और फिर सभी उनके चरणों में झुक गए । कहने लगे "धन्य, धन्य । आप की धनुष कला । श्राप ने अद्भुत कला दिखाई है । आप महान् हैं । हम सब श्राप को प्रणाम करते हैं । आप हमें आशीर्वाद दीजिए कि हम भी इस विद्या में निपुण हों ।" केवल आशीर्वाद से ही काम नहीं चलता । आशीर्वाद तो मैं सभी को देता हूँ | मैं चाहता हूँ सभी विद्याओं में प्रवीण हो । पर विद्या प्राप्त होती है साधना से, लगन से, गुरु सेवा से ।" वृद्ध ब्राह्मण ने सभी कुमारों को समझाया । "हम तो सभी अपने गुरुदेव को प्रसन्न रखते हैं, एक कुमार कहने लगा, और गुरुदेव हम सभी को बहुत अच्छी तरह शिक्षा देते हैं । वे चहुत ही अच्छे हैं।" / | "कोन हैं तुम्हारे गुरुदेव । तनिक हमें भी तो मिलाओ ।" ब्राह्मण की बात सुन कर सभी कुमार उन्हें अपने साथ ले चले, अपने गुरु के पास । X X "अहो भाग्य ! आज तो हमारे यहां द्रोणाचार्य पधार रहे हैं ।" दूर से ही द्रोणाचार्य को कुमारी के साथ श्राता देख कर कृपाचार्य हर्षित होकर कहने लगे । वे उन के स्वागतार्थ द्वार तक आये । नमस्कार किया और आदर सत्कार के साथ अन्दर ले गए। एक कुमार ने गुरुदेव कृपाचार्य के चरण स्पर्श करके कहा "गुरुदेव इन वृद्ध ब्राह्मण ने हमें आज श्रद्भुत कला दिखाई ।" "यह तो द्रोणाचार्य हैं, धनुषविद्या के धुरधर विद्वान् ? प्रसिद्ध गुरु !" कृपाचार्य बोले । सभी कुमार उनकी ओर श्रद्धापूर्ण दृष्टि से देखने लगे ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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