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________________ कौरव पाण्डओं की उत्पत्ति ३१६ गुणों की खान, सतधारी और कुल के मस्तक को उच्च करने वाला होगा, इस परम प्रतापी से पाण्डू नप का वश जगत प्रसिद्ध होगा। जीवन के अन्तिम परिच्छेद में यह सयम धारो होगा और मोक्ष पद प्राप्त करेगा । अन्तरिक्ष की वाणी सुनकर भीष्म पितामह वहुत ही प्रसन्न हुए। और पाण्डू के हर्ष का तो ठिकाना ही न था । दस दिन व्यतीत होने के पश्चात् पाण्डू ने दसोटन किया सारी नगरी को निमत्रण दिया गया, मिष्ठान्न ओर फलों से सभी को छको दिया गया, मुक्त हस्त से दान दिया। विद्वान् पडितों ने शिशु को युधिष्ठिर का नाम दिया। __कुछ विद्वानों ने माता पिता के धर्मी जन होने के कारण धर्मराज कहकर पुकारा और बहुत से शिशु को अजीतारि कहकर पुकारने लगे। कुन्ती रानी को अपार हर्ष हुआ था, उसने स्वय अपने हाथों से बहु मूल्य द्रव्य दान में दिए । उस कातिवान शिशु को देख कर लोग आनन्दित हो जाते । बाल चन्द्र, वाल रवि वृद्धि की ओर जाने लगा, तो उस की काति और भी बढ़ने लगी। युधिष्ठर के पिता पाण्डू क्रियाकांड के अच्छे पण्डित थे, इसलिए उन्होंने अपने बालक का अन्ताशन, सचौल, उपनयन आदि सभी संस्कार शास्त्रविधि अनुसार कराये । युधिष्ठिर ने जब बाल्यकाल से युवावस्था में पग रखा, उसकी वाणी में ओज आ गया, उसमें कला के प्रति अनुराग, विज्ञान के प्रति आसक्ति और शील स्वभाव तथा सद्गुणों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। मद का भाख रच मात्र भी नहीं आया । उसके मस्तक पर उस समय निर्मल मणियों से जड़ा हुआ . मुकुट अत्यन्त शोभा देता था। मानो शिखर सहित सुमेरु पर्वत की चोटी हो । उसका मुख मण्डल चन्द्र मण्डल को भी मात करता था, चन्द्रमा तो घटता बढ़ता भी है और उसमें एक दाग भी है पर उसके मुख में घटने बढ़ने तथा दाग जैसी कोई बात नहीं थी उसके कानों में पड़े हुए कुण्डल अत्यन्त शोभा देते थे, नेत्र सूक्ष्मदर्शी और मनोहर थे। उसकी नाक चम्पा के समान शोभा युक्त थी । सुन्दर किंपाक फल के समान आरक्त थे उसके हॉट । भृकुटि चचल थी। उसके कण्ठ में हीरे का हार पड़ा हुआ था। जिससे उसकी शोभा अत्यन्त अद्भुत हो गई थी। युधिष्ठिर का वक्षस्थल बहुत विस्तृत था, भुजाएं
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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