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________________ २८५ महारागी गगा wrmrrrrrrrn बात के लिए पिता जी इस प्रकार तडप रहे हैं ? यह तो बहुत ही छोटीमी बात है। मैं अभी इसको सुलझाये देता हूँ" इतना कह कर गागेय यमुना तट की ओर चल पडे । । "आज आपने महाराज का अनादर करके अच्छा नहीं किया उनका दिल तो टूक हो गया है और ये बुरी तरह व्याकुल है । कन्या का श्रापको विवाह तो करना ही है फिर महाराज के साथ विवाह करने में दोष ही क्या है ?" गागेय ने नाविक से कहा। "कुमार । मैं स्वय बहुत लज्जित हूँ कि महाराज की इच्छा पूर्ण नहीं कर सकता" नाविक ने खेद प्रगट करते हुए कहा। "क्यों ?" "कुमार । जो मौत का पुत्र होते हुए भी अपनी कन्या को देता है वह जानबूझ कर उसे और उसकी भावी सन्तान को अधेरे कुए मे धकेलता है-तुम्हारे जैसे पराक्रमी, वुद्विमान ओर अनेक विद्याओं में निपुण सौत पुत्र के होते, तुम्ही बताओ, मेरी कन्या की सन्तान केसे सुखी रह सकती है ? क्या वन में गर्जना करते हुए सिंह के होते कभी मृग गण सुखी रह सकते हैं ? कदापि नहीं। राजकुमार । मेरी कन्या से जो सन्तान होगी वह कभी राज्यपाट का नहीं प्राप्त कर मकती प्रत्युत उसे आपत्ति में ही फस जाना पडेगा।" नाविक ने कहा। ___ "आपने जो कल्पना की है, वह भ्रम मात्र है। राजकुमार कहने लगे, हमारे वश का अन्य वशों से भिन्न स्वभाव है। कौवो और हसों को समान मत समझो। हमारे वशजों के विचार ही दूसरों से भिन्न है। मैं प्रापको विश्वास दिलाता है कि सत्यवती को अपनी माता से 'प्रधिक प्रादर की दृष्टि से देखू गा।" । केवल 'प्रादर सम्मान से ही क्या होता है ? मैं तो सत्यवती की सन्तान के सम्बन्ध में भी चिन्तित हूँ" नाविक ने कहा । ___"इसके लिए भी आप चिन्ता न करे, गांगेय कुमार बोले, मैं प्रापके सम्मुख हाथ उठाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि मत्यवती की भावी सन्तान ही राज्यपाट की भोत्ता होगी, मैं नहीं-श्रय ता आपको विश्वास याया।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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