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________________ २८४ जैन महाभारत rammarwarimammmmmmmmmmmmmmmmm शब्दों में विश्वास दिलाया कि सत्यवती की सन्तान के साथ अन्याय नहीं होगा, पर नाविक न माना। महाराजा निराश लौट आये । पर उनकी निराशा उनके मुख मण्डल पर मलीनता के रूप मे पुत गई थी। उनकी गर्दन लटकी हुई सी थी। उनके नेत्रो में दुख झांक रहा था, वे व्याकुल थे । महल में आने पर, वैभव के समस्त साधन उपलब्ध होने पर और मन लुभावने कार्यक्रम चलने पर भी उनको शान्ति न मिली । वे उदास थे, रह रह कर दी निश्वास छोड़ रहे थे। उनकी आवाज डूबी हुई सी थी। उनका उत्साह लुप्त हो चुका था। वे कृत्रिम हसी हसने की चेष्टा भी करते तो उनके हृदय की पीड़ा मुह पर प्रतिविम्बित हो जाती। गांगेय ने जब पिता जी को देखा वह समझ गया कि कोई बात है जो उनके मन में काटे की भॉति खटक रही है, जिसके कारण वे व्याकुल है । "क्या किसी ने उनकी अवज्ञा की है ? क्या किसी ने कोई धृष्टता की है ? क्या कोई उपद्रव हुआ है ?" कितने ही प्रश्न उसके मस्तिष्क में उठे। उससे न रहा गया, सुपुत्र था वह, पिता के मुख को मलिन देखना उसे सहन नहीं था। पूछ बैठा "पिता जी | मैं देख रहा हूं कि आप कुछ उदास तथा व्याकुल से है । क्या कारण है ?" शान्तनु ने पुत्र से अपने मनोभाव छुपाने का प्रबल प्रयत्न किया, ओर अधरी पर कृत्रिम मुस्कान लाने की चेष्टा करते हुए वे बोले "नहीं ता ऐसी बात तो नहीं है। हम तो अन्य दिन की भाति ही हैं, तुम्हे भूल हुई है।" "नहीं पिता जी, आप तो वास्तव मे कुछ दुखी से प्रतीत होते हैं। आप मुझे बताइये । क्या कारण है आपकी व्याकुलता का । फिर यदि मैं आपकी व्याकुलता को किसी भी प्रकार दूर कर सका तो अपने को चन्य समझू गा" गांगेय कुमार बोला "गागेय ! तुम्हे भूल हुई है, मुझे कोई भी तो चिन्ता नहीं, दुख भला किस बात का हो सकता है ?" शान्तनु ने मनकी बात न बताई। पर गांगेय भाप गया कि बात कुछ अवश्य है पर पिता जी बताना नहीं चाहते। उसने मत्री जी से महाराज के व्याकुल होने का कारण पूछा। मत्री जी ने साफ साफ सारी बाते बता दीं । गागेय ने सारी कहानी सुन कर कहा "इतनी-सी
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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