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________________ २७२ जैन महाभारत विख्यात नृप शान्तनु हुए थे। जो उस दिन मृग की कृपा से एक परम सुन्दरी के दर्शन कर रहे थे। ___"सुन्दरी | तुम कौन हो” महाराज शान्तनु ने उसे सम्बोधित करके प्रश्न किया । सुन्दरी ने एक बार शान्तनु की ओर देखा और सकुचाई सी खडी रह गई। "मैं आप ही से पूछ रहा हूँ ?" शान्तनु फिर बोले । "मेरा नाम गंगा है" सुन्दरी ने उत्तर दिया। पर उसके मुख पर लालिमा उभर आई थी। "ओह । गगा कितना सुन्दर नाम, पवित्रता और गुणों को अपने उदर मे छिपाए, कलकल बहती गगा का स्त्री रूप ।' शान्तनु ने प्रशंसा पूर्वक कहा-गंगा के मुख पर लज्जा ने लालिमा को और भी गहरा रग दे दिया। साक्षात् अप्सरा समान सुन्दरी को वह देखते ही रह गए । परन्तु गंगा वहाँ न ठहर सकी। वह एक ओर को चल पड़ी। शान्तनु के मुख से निकल पड़ा "सुन्दरी ! आपके पिता का नाम ?" "जन्हू" गंगा ने बिना पीछे देखे ही उत्तर दिया और फिर पग . उठाया। "स्थान ?" "रत्नपुर" सूक्ष्म सा उत्तर मिला। दुष्ट परामर्श दाताओं के सयोग से उत्पन्न हुए शिकार के व्यसन के शिकार शान्तनु उसकी ओर भूखी नजरों से देखते रह गए और गंगा वहाँ से चली गई। जैसे कोई अप्सरा आकाश से अवतरित हुई और एक झलक दिखा कर वायु मे विलीन हो गई हो। __शान्तनु जो अप्सरा समान गंगा के रूप तथा यौवन के शिकार हो गए थे, उसी के सम्बन्ध में सोचने लगे "काश ! मैं इस पवित्र एव गुणवती सुन्दरी को प्राप्त कर सकता। ___“महाराज की जय हो" एक आवाज ने उनके विचारों की उड़ान को भंग कर दिया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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