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________________ महाराणी गगा २७१ उनकी दृष्टि गई है उस का वध किए बिना वे माने नहीं। हां। एक बार उस मृग ने उनकी ओर याचना भरी दृष्टि से देखा अवश्य था, पर उस समय उस की आँखों में, प्यारे-प्यारे सुन्दर एवं भोले नेत्रों में, न जाने क्या था कि उस से प्रभावित होकर महाराज शान्तनु अपने धनुष पर तीर चढाना भूल गए थे । कदाचित् वह मृग उनसे प्राणों की भिक्षा मांग रहा था । कदाचित् उस ने कहा था " महाराज 'शान्तनु । मुझे भी अपने प्राणों से उतना ही मोह है जितना आपको अपने प्राणों के प्रति ? आप ही बताइये कि कोई आप के प्राणों को हरने का प्रयास करे तो आपके हृदय पर क्या बीतेगी ? यदि कोई आपसे अधिक बलवान काल रूप धर कर आये, जबकि निशस्त्र हों, आ आक्रमण करे, जबकि आप निरपराधी हों, जबकि आपका उससे दूर का भी वास्ता न हो, तब आप उसे क्या कहेंगे, न्याय अथवा अन्याय । कदाचित् उसने आंखों ही आँखों में मौन प्रश्न किया था कि यदि कोई हत्या के अपराध में आपके दरबार में पहुँचता है, तो आप उसे प्राण दण्ड देते हैं, क्योंकि उसने हत्या जैसा जघन्य अपराध किया पर आप स्वयं निरपराधियों का बध करते फिर रहे हैं, आप अपने प्रति न्याय क्यों नहीं करते ? उस मूक मृग ने कहा था राजन ? आप में आत्मा है तो आत्मा मेरे आप मेरा वध करके जितना जघन्य पाप कर रहे हैं उसका आपको भयकर फल भोगना पड़ेगा ? आप एक योग्य राजा हैं, अपने चरित्र को कलकित न कीजिए । क्षण भर में मानों यह सारी बात उसने अपनी आँखों की मूक वाणी से कह डाली थीं। पर शान्तनु जिन में शिकार खेलने का अन्यायपूर्ण व नीचतम, दुर्व्यसन पड़ गया था कुछ न समझ पाए थे और उसका पीछा करते करते वे गंगावट पर खड़ी एक सुन्दरी के मादक लावण्य के अनुरागी हो गए थे । वे कुरुवश के एक प्रसिद्ध राजा थे, जो भगवान ऋषभदेव के पुत्र कुरु के नाम पर बने कुरुवश के द्वितीय रत्न हस्ती नृप द्वारा वसाये गए हस्तिनापुर के राज्य सिंहासन को सुशोभित करते थे । पदम रथ के पश्चात् क्रमानुसार पदमनाभ, महापदम, कीर्ति, सुकीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकी, आदि बहुत से राजा हुए, उनके पश्चात् ही इस वश के 4 अन्दर भी है ? विश्वास रखिये
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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