SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोहिणी स्वयवर २३१ बैठ गये । इसलिये वहां पर उपस्थित समुद्रविजय आदि उनके भाइयों ने उन्हें पहचाना नहीं। देखते ही देखते सारा सभा मण्डप राजामहाराजाओं से मण्डित हो गया। सब लोगों के उचित आसनों पर विराजमान हो जाने पर परम सुन्दरी साक्षात् सौभाग्य लक्ष्मी की प्रतिरूप रोहिणी ने स्वयवर सभा में पदार्पण किया। इस राजकुमारी के भुवनमोहक रूप को देख सब राजा लोग अपने आपको भूलकर उसी की छवि निहारने में तन्मय हो गये। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि मानों स्वयवर में उपस्थित नृपतिगण अपनी दृष्टि रूपी नलिनियों के द्वारा रोहिणी का सम्मान कर रहे हैं। पहले तो वे लोग उमकी रूपसौन्दर्य की चर्चा करते ही मुग्ध हो रहे थे। किन्तु अब प्रत्यक्ष उसको अपने सम्मुख उपस्थित पाकर उनके आनन्द का ठिकाना नहीं रहा था। सभा में उपस्थित एक से एक सुन्दर सभी नवयुवक और राजकुमारों हृदय इस समय मारे खुशी के बल्लियों उछल रहे थे, इस समय प्रत्येक के हृदय में यही भाव था कि इस सभा मे मेरे समान सुन्दर दूसरा कोई नहीं है। अतः रोहिणी अवश्य मेरा ही वरण करेगी-जयमाला मेरे ही गले मे डालेगी। कन्या के आगमन की सूचना देने वाले शख, मुरज, पटह, पणव वेणु वीणा आदि वाद्यों के बन्द हो जाने पर रोहिणी के साथ चलने वाली हित मित व मधुर भाषिणी परम चतुरा धाय राजकुमारी को राजमण्डल के सन्मुख ले जाकर उपस्थित प्रार्थियों में से एक-एक का परिचय देते हुए कहने लगी कि हे वत्से । तीनों लोकों को विजय करने से साकार यश के समान चन्द्र मण्डल के जैसे शुभ्र छत्र को धारण करने वाला सुश भित यह महाराज जरासन्ध है । समस्त विद्याधर और भूमिचर राजा इनके आज्ञाकारी हैं । अखण्ड भूमण्डल के स्वामी महाराज जरासन्ध के रूप में मानो आकाश से चन्द्रमा ही रोहिणी रूपी रोहिणी का वरणान करने के लिये पृथ्वी पर उतर आया है। ये परम शान्त और सुन्दर है अतः तुम इनका वरण कर अपने आप को कृतार्थ कर लो।। किन्तु रारिणी ने धाय के इस वचन की कुछ परवाह न कर जरासन्ध की श्रार दृष्टिपात न किया तो वह आगे कहने लगी कि प्रिय पुत्री । देखो, यह महाराज जरासन्ध के एक से एक वढकर पर क्रिमीय
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy