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________________ २२५ जैन महाभारत अपने दर्शनार्थं आई हुई उसे मैने पूछा कि-'पुत्री तू यौवनवती और कलाओं में निपुण है फिर भी पुरुषो के प्रति तेरी ऐसी द्वषभावना क्यों है ? तब उसने उत्तर दिया कि हे तात ! इसका काई विशेष कारण है। वह मै आपको बताती हूँ इससे पूर्व मैंने यह कारण आजतक किसी को नहीं बताया, इससे पूर्व भव में मै एक वन प्रदेश मे चरने वाली हरिणी थी। अपने प्रिय सुनहरी पीठ वाले हिरण के साथ-साथ जगलो में स्वच्छन्द विहार किया करती थी । एक बार ग्रीष्म ऋतु मे बहुत से व्याधों ने हमारे मृग पर आक्रमण कर दिया, इस पर वह यूथ चारों ओर तितर-बितर हो गया और वह मेरा प्रिय हरिण भी मुझे अकेली छोड़ शीघ्रता पूर्वक भाग निकला। गर्भवती होने के कारण मन्दगति वाली मुझको व्याधों ने पकड़ कर मार डाला। तब वहाँ से आकर मैने यहां जन्म लिया, बचपन मे राजमहलों के ऑगन मे किलोले करते हुए मृग शावक को देखकर मुझे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया और मैंने मन में निश्चय किया कि ये बलवान् पुरुष कपटी और अकृतज्ञ होते हैं। पहले मृग मुझे इस प्रकार मोहित कर एक प्रदेश मे छोड़ कर चला गया। इसलिये मुझे किसी पुरुष के दर्शन से कोई प्रयोजन नहीं, हे तात । इसी कारण से मेरे हृदय मे पुरुषो के प्रति द्वषभावना जागृत हो गई है। __ इस पर मैंने उसे कहा-'यह तुम्हारा निश्चय उचित ही है।' किन्तु हे सौम्य ! वह कन्या अब आपके योग्य है इसलिये कोई उचित उपाय कीजिए। तब वसुदेव ने एक चित्रपट मगवाकर ऐसा चित्र अंकित किया जिसमें उस मृगी से बिछुड़ा हुआ हरिण उसके विरह में तड़फता हुआ इधर-उधर भटक-भटक कर उसे ढूढ़ रहा था । और अन्त मे उसे कहीं न पाकर अपने उदास नेत्रो से अश्रुधारा बहाता हुआ दावाग्नि में अपने आपको फेंक रहा था। एक दिन ललित श्री की एक दासी सुमित्र के पास आई और वसुदेव को तन्मय होकर चित्र देखते देख कहने लगी कि यह चित्र आप किसका देख रहे हैं। इस पर वसुदेव ने उत्तर दिया--'मैं अपना आत्म-चरित ही देख रहा हूँ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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