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________________ जैन महाभारत २०२ चलते चलते धन्य को एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करते हुवे मुनिराज दिखाई दिये, उनका शरीर तपस्या के कारण अत्यन्त कृश हो गया था और वर्षा जल के कारण हवा से हिलते हुवे वृक्ष के समान उनका वह शरीर कांप रहा था । उस मुनिराज को इस प्रकार परिषह सहते देख कर धन्य के हृदय मे दया आ गयी और उसने अपना छाता मुनिराज के सिर पर लगा दिया । सिर पर छाते के लगते ही मुनिराज के दुःख का वैसे ही अन्त हो गया जैसे कि वे खुले जगल में न होकर बस्ती में बैठे हों। शराब पीकर मदोन्मत्त हुए शराबी की प्यास जैसे उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है वैसे ही वर्षा का वेग भी प्रति पल बढ़ रहा था । घटों बीत गये पर वर्षा ने बन्द होने का नाम नहीं लिया। जब तक वर्षा बन्द नहीं हुई धन्य भी उनके सिर पर छाता लगाये रहा । अन्त मे वर्षा बन्द हुई। मुनिराज ने वर्षा के बन्द होने तक ध्यान का अभिग्रह किया था । इसलिए वर्षा समाप्ति पर जब वे ध्यान से निवृत हुए तो धन्य ने उनके चरणों मे प्रणाम कर पूछा कि हे । भगवन्, आज का वर्षा का समय तो बड़ा भयकर है, चारों ओर पानी ही पानी और कीचड ही कीचड दिखाई दे रहा है ऐसे भयकर समय मे आपका यहा आगमन कहाँ से और किस प्रकार हुआ ? तब मुनिराज ने बताया कि वे पाण्डु देश से चले आ रहे हैं और लका की ओर चले जा रहे हैं। क्योंकि लका नगरी गुरु के चरणों से पवित्र हो चुकी है मार्ग में चलते चलते अन्तराय स्वरूप यह वर्षा आ गई। इस प्रकार मेरी यात्रा में विघ्न उपस्थित हो गया क्योंकि जब वर्षा हो रही हो तो साधु के लिये मार्ग मे चलना निषिद्ध है इसलिए वर्षा के समाप्त होने तक ध्यान करने का अभिग्रह लेकर मैं यहीं पर खडा हो गया । हे आत्मन् ! आज सातवे दिन वर्षा के समाप्त होने पर मेरा अभिग्रह पूर्ण हो गया है, अतः मैं अब किसी बस्ती मे चला जाऊगा । तब धन्य ने परम प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर कहा हे मुनिराज ! क्योकि मार्ग में बहुत अधिक कीचड़ भरा हुआ है, पैदल चलना बड़ा वडा कठिन है श्रुतः आप मेरे भैसे पर बैठ जाइये ताकि अनायास ही वस्ती मे पहुंच जायेगे । f
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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