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________________ मदनवेगा परिणय १७६ _राजा के ऐसे निराशाजनक वचन सुनकर मैं बहुत दुखी हुई । कुछ दर तो वहीं किंफर्त्तव्य विमूढ़ सी खड़ी रही। पर अन्त में मैंने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। उस बालक को वहीं छोड़ में आकाश में उड गई। ग्राफाश मे जाते-जाते मैं ने शिलायुद्ध को सम्बोधित करते हुए कहा कि "हे राजन् मैं वही ऋपिदत्ता हूँ जिम के साथ आपने तपोवन में रमण किया था। यह बालक आप ही का पुत्र है। आप ने इसे अपना उत्तराधिकारी बनान की प्रतिज्ञा की थी। इसके जन्मते ही प्रसव वेदना के कारण में मर कर देवो बन गई थो" पश्चात् पुत्र वात्सल्य के कारण मैंने दुमरा शरीर पाकर भी अपनी वैक्रिय शक्ति से हरिणी बनकर इसका पालन किया है। इसी लिए इस कानाम एणी पुत्र है। श्रत ६ राजन् प्राप इसे स्वीकार कर अपनी प्रतिज्ञानुसार राज्य का 'अधिकारी वनाइये। इस पर महाराज शिलायुद्ध ने उस बच्चे को स्वीकार कर उसे राज्यधिकारी बना दिया, और स्वय नेदीक्षा ले ली। इसके अनन्तर क्योकि एणीपुत्र के काई सन्तान नहीं थी, उस ने अट्टमभत्त तप करके मेरी आराधना की। उस तप के प्रभाव से उसके एक कन्या उत्पन्न हुई। ऐणीपुत्र को वही कन्या प्रियगुमन्जरी के नाम से प्रसिद्ध है। प्रियगुमन्जरी ने अपने स्वयवर में आये हुए सभी राजाओं को प्रस्वीकार कर दिया था। यह तो तुम जानते ही हो । अब उसने तप करके मुझे बुलाया था और वह तुम्हें पति रूप में प्राप्त करना चाहती है। प्रत तुम्हे अपने आदेशानुसार उसके साथ विवाह फरने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए अपनी पीत्री के विवाहापलक्ष्य में मैं तुम पर प्रसन्न होकर तुम्हारी इच्छानुसार वर देना पाहती। तुम जो भी चाही मुझ से वर मांग सकते हो। यह मुन फर वसुदेव ने कहा, भगवती । मुझे आप का आदेश शिरोधार्य है। आपके पासानुसार में प्रियगुमजरी को अवश्य स्वीकार पर लगा । शेष रही वरदान की बात, सा आप मुझे यही वर दाजिय कि मैं जय भी प्रापका स्मरण करू', श्राप वहीं पहुच कर मेरो यथापित सहायता कर, तप देयो तधास्तु कह कर अन्तर्धान हा गई। पर दूसरे दिन प्रियगुमन्जरी ने फिर वसुदेव को बुलाने को
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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