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________________ १७ जैन महाभारत सतायुद्ध के पुत्र शिलायुद्ध वहां से विदा हो गये । उनके चले जाने पर ऋषिदत्ता ने यह सारा वृतान्त अपने पिता को सूचित कर दिया । यथ समय ऋषिदत्ता के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसी समय प्रसूति वेदना के कारण ऋषिदत्ता वालक को अपनी छाती का दूध पिलाये बिना ही स्वर्ग सिधार गई । हे वसुदेव कुमार ! पिछले भव की वह ऋषिदत्ता इस जन्म में एक देवी बनकर ज्वलनप्रभ नामक नाग कुमार की यह रानी है । और तुम्हें सुनकर विस्मय होगा कि वह देवी मैं ही हूं और आज एक विशेष प्रयोजन से तुम्हारे पास उपस्थित हुई हैं। हाँ तो सम्भव है तुम जानना चाहोगे कि मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे उस पिछले भव के पुत्र का क्या हुआ तो सुनो - ऋषिदत्ता की मृत्यु के पश्चात् उस के पिता अमोघरेतस उस नवजात शिशु को अपनी गोद में लिये बिलखने लगे। उन्हें कुछ समझ में नहीं आता था कि उस बालक का पालन-पोषण किस प्रकार किया जाय । इधर मुझे अवधि ( जाति-स्मरण) ज्ञान था ही इसलिए मैं ज्वलनप्रभ की भार्या होने पर भी अपने पुत्र के प्रति उमडे हुए वात्सल्य भाव के कारण हरिणी का रूप धारण कर मै उस नवजात शिशु के पास जा पहुंची और अपना दूध पिलाकर उसका पालन-पोषण करने लगी । एणी अर्थात् हरिणी के द्वारा पालित होने के कारण ही उसका नाम ऐणीपुत्र पड़ गया । उधर तापस कुमार कौशिक मर कर मेरे पिता से बदला चुकाने के लिए दृष्टिविष सपे की योनि में आकर मेरे पिता को डस गया । किन्तु मैं अपनी विद्या से उस विष के प्रभाव को नष्ट कर उनके प्राण बचा लिए । तत्पश्चात उस सर्प को प्रतिबोध की प्राप्ति हुई । फलतः वह सप के शरीर को छोडने के पश्चात् बल नामक देव हो गया । इधर एणीपुत्र के कुछ बड़ा हो जाने पर मैं अपना पुराना ऋषिदत्ता का स्वरूप धारण कर श्रावस्ती नगरी में पहुँची । मैंने उस बालक को महाराज शिलायुद्ध के समक्ष उपस्थित करते हुये उन्हें कहा कि अपनी पूर्व प्रतिज्ञानुसार आप अपने इस पुत्र को अपना लीजिये । किन्तु वह उन सब बातो को भूल कर कहने लगा कि "देवि ! मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो और यह बालक किस का है । अतः मैं इसे अपने पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता ।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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