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________________ जैन महाभारत और उसकी शीतल छाया में दम्पत्ति क्रीडा करने लगे। उसी समय वहा एक माया-मयूर आ पहुँचा, उसका सुन्दर रूप निहार कर नीलयशा उस पर मुग्ध हो गई और उसको पकडने की चेष्टा करने लगी। मायामया कभी समीप आता तो कभी दूर दौड़ जाता, कभी झाड़ियों में छिप जाता तो कभी मैदान मे निकल आता। नीलयशा उसको पकड़ने की इच्छा से कुछ दूर निकल गई और अन्त मे जब वह उसके पास पहुंची तो मयूर ने नीलयशा को अपने कन्धे पर बैठा लिया। तत्पश्चात् मयूर आकाश मार्ग से जाता हुआ अदृश्य हो गया। मयूर की इस लीला को देख कर वसुदेव आश्चर्य में पड गये। वे मयूर के पीछे दौडे। बहुत दूर तक उन्होने मयूर का पीछा किया किन्तु जब वह उनके नेत्रो से ओझल हो गया तब वे हतोत्साह होकर वहीं खड़े हो गये। इधर सन्ध्या वेला हो चली थी अतएव कहीं विश्राम का प्रबन्ध करना आवश्यक था । वसुदेव ने इधर उधर देखा तो मालूम हुआ कि वे एक ब्रज (गायों के बन्द करने का स्थान) के समीप आ पहुंचे हैं। वे वहां गये । वहा गोपियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। इस प्रकार वसुदेव ने रात्रि वहीं व्यतीत की और सूर्योदय के पूर्व ही वे वहां से दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े। मार्ग में उन्हे गिरितट नामक एक गांव आया। वहा उन्हे वेदध्वनि सुनाई दी। वसुदेव ने एक ब्राह्मण से इसका प्रयोजन पूछा। १एक बार नीलयशा ने वसुदेव से कहा कि हे" नाथ आप विद्या वल से रहित हैं अत आपको कुछ विद्याए अवश्य सीख लेनी चाहिए, नही तो विद्याधरो द्वारा आप कही कभी भी पराजित हो सकते हैं। क्योकि यह समस्त वैताढ्य प्रदेश विद्याधरो का ही है ।' इस पर प्रसन्न हो वसुदेव ने कहा प्रिये । तुमने मेरे लिए अत्यन्त हित की बात सोची है अत में प्रारणपण से तेरे पर न्योछावर हूँ। तेरे जैसी मुझे हितैषी जीवन सगिनी नही मिली । मेरे मन में भी विला सीखते की कई बार अभिलाषा जागी किन्तु कोई सिखाने वाला नही मिथा । इसलिए प्रिये | जैसी तेरी रुचि हो वैसी ही मुझे विद्या सिखा दो। इस प्रकार वसुदेव की अनुमति प्राप्त कर नीलयसा उन्हे वैताढ्य पर्वत पर ले गई । वैताढय जैसे रमणीय प्रदेश को देखकर वसुदेव उसमें क्रीडा करने को लालायित हो उठे और वे अपनी पत्नी के साथ प्रकृति सुषमा के निहारने को इधर उधर घूमने लगे। * वसुदेबहिण्डि
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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