SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ जैन महाभारत mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. ___ इधर इन्हीं दिनो नागराज धरणेन्द्र भगवान के दर्शन के लिए आ पहुचे । उन्होने उन्हें इस प्रकार उपासना करते देख कौतुहल वश पूछा कि 'तुम भगवान की किस लिए सेवा (उपासना) कर रहे हो?' तव उन भाइयो ने कहा कि हम क्षत्रिय हैं। भगवान् के लघु पुत्र हैं । जब महाराज ने अपने राज्य का सविभाजन किया उस समय हम कहीं दूर गए हुये थे अतः हमें राज्य भाग नहीं मिल सका। इसी लिए हम उपासना कर रहे है। धरणेन्द्र ने उन्हें इस प्रकार राज्य के इच्छुक जान कर तथा उन परम योगी, निरुद्धाश्रवी भगवान् के पुत्र और उपासक समझ कर वैतान्य पवत की दक्षिण व उत्तर श्रेणी का राज्य उन्हे दे दिया और साथ ही उन्हे गगन गामिनी विद्या भी दे दी। जिस से कि वे सरलता पूर्वक वहा पहुच सके । कालान्तर मे दिति और अदिति नामक दो धरणेन्द्र की अनुगामिनी देवियों ने उसकी आज्ञानुसार उन्हे महारोहिणी, प्रज्ञप्ती, गोरी, विद्युत्मुखी, महाज्वाला, मातगी आदि नव प्रकार की महाविद्याए देकर विद्याधरों के स्वामी बना दिये । इस प्रकार नमि व विनमि दानों भाई देवों के सदृश राज्य सुखोपभोग मे समय बिताने लगे। ____ एक बार क्रीड़ा करते हुए अनायास ही उनके हृदय मे संसार से विरक्त होने का विचार आ गया। उसी समय उन्होंने अपने-अपने पुत्रों को राज्य तथा विद्याए बांट दी ओर जिनचन्द्र अणगार के पास दीक्षित हो गये। आगे चलकर इन्हीं महाविद्याओं के नाम पर विद्याधरों के वश चले अर्थात् महाराज नमि और विनमि के पुत्रों को जो जो विद्याए मिली उन्हीं के नाम से वे और उनके जनपद विख्यात हुए। जैसे गोरी के गौरिक, गधारी के गन्धर्व या गाधार, सात्तङ्गी के मात्तङ्ग विद्याधर कहलाये। इस प्रकार महाराज नमि और विनमि के पश्चात् असख्य विद्याधर राजा हुए है जिन्होने राज्य श्री को तृणवत् त्याग कर सयम का आश्रय ले लिया। उन्हीं मात्तग विद्याधर वश परम्परा में एक विधसितसेन नामक बड़े पराक्रमी राजा हो चुके है। उनके पुत्र महाराज प्रहसित आजकल विद्याधर पति है। मैं उन्हीं की पत्नी हूं। मेरा नास हिरण्यमती है। नलिनिसभ नगर के स्वामी हिरण्यरथ की पुत्री तथा प्रीतिवद्धेना की आत्मजा हूँ। मेरे पुत्र का
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy