SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्तग सुन्दरी नीलयशा १४१ आदि निकृष्ट तत्त्व आ जाया करते हैं अत परस्पर वस्तुओं के लिए सन्देह होने लगा और मानवीय व्यवस्था भग होने लगी। इसे प्रकार की परिस्थिति में उस युगपुरुष ने वस्तु उत्पादन आदि की कायविधि बतायी जिस से कि उसका अभाव दूर सके और मानव अपने आपको सही रूप में रख सके । उनकी इस पद्धति से सारा भारतक्षेत्र सुखपूर्वक अपना जीवन यापन करने लगा। कहीं भी दुःख दैन्य का नाम नहीं सुनाई देता था। आगे चलकर इन्होंने मानव जीवन को शुद्ध और निर्मल बनाने के लिए अध्यात्मवाद (धर्म नीति) का विधान किया। जिस से प्राणी क्रमश आत्म-विकास करता हुआ आत्मा से महात्मा और उससे परमात्म पद को प्राप्त कर सके। इसी लिए इन्हें आदि पुरुष, सृष्टि के आदि कर्ता, आदिनाथ और शास्त्रीय शब्दों म प्रथम तीर्थकर, मार्गदर्शक आदि विशेषणों से पुकारा है। __ इनके सुमगला और सुनन्दा नामक दो रानिया थीं । जो रूप, शील आदि समस्त स्त्री गुणों से युक्त थीं। सुमगला ने भरत+ आदि अठ्यानव पुत्रों तथा ब्राह्मो नामक पुत्री का जन्म दिया। जब कि सुनन्दा ने 'बाहुबलि और सुन्दरी नामक पुत्र-पुत्री को । इस प्रकार महाराज ऋषभदेव के एक सौ दो सन्तानें थीं। ये सब सन्ताने भी अपने पिता की भांति गुणों से युक्त थीं। कालान्तर मे अपने कर्म मल दूर करने तथा विश्व मे त्याग एव तप का विशिष्ट श्रादर्श उपस्थित करने के लिए महाराज ऋषभदेव ने अपने सब पुत्रों को राज्य बांट कर तथा भरत को राज्याभिषेक कर स्वय ने श्रमणवति अगीकार कर ली। हे वसुदेव उन्हीं से यह सन्यासाश्रम का प्रादुर्भाव हुआ है । हा, तो जब महाराज ऋषभदेव अपने पुत्रों को राज्य बांट रहे थे उस समय उनके नमि और विनमि नामक दो पुत्र वहाँ उपस्थित न थे। फ्लतः वे दोनों राज्य से वचित रह गए। अब जब भगवान् तपस्या में लीन हो गये तो वे दोनों पुत्र राज्य प्राप्ति के लिये उनकी सेवा करने लगे। + जिस के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पडा। शास्त्रीय दृष्टि से यह प्रथम चक्रवति राजा था जिस ने छ खण्ड पर अपना आधिपत्य जमाया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy