SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मासग सुन्दी नीलयशा १३६ निकल पड़े। चलते-चलते वे लोग उद्यान मे जा पहुंचे और वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगे। ___ थोड़ी ही दूर यहाँ पर जन-समूह एकत्रित दिखाई दिया। इस जन-समूह के बीच मे नीलकमल के समान कान्ति वाली एक परम सुन्दरी, नवयुवती अपनी नृत्य संगीत आदि कलाओं का प्रदर्शन कर रही थी। उसके इस अद्भुत कला-चातुर्य को देख-देख वसुदेव मन ही मन मुग्ध हो रहे थे । उस कला के प्रदर्शन की अलौकिकता के कारण वसुदेव इतने तन्मय हो गये कि उन्हें अपने आस-पास के लोगों का भी ध्यान नहीं रहा । वास्तव में यह मातग' कन्या जितनी सुन्दर थी उसकी कला उससे भी कहीं बढ़-चढ़कर थी। वसुदेव को इस प्रकार अपने आपको खोया सा देख गन्धर्व सेना से न रहा गया । उसने तत्काल वहाँ से प्रस्थान करने की तैयारी कर ली । चलते समय वसुदेव और उस मातग कन्या की चार ऑखें हुई। इस पर वसुदेव सोचते रह गये कि 'कहाँ तो ये मातग जाति और कहाँ इसका यह अलौकिक रूप । इस रूप के साथ ही साथ शास्त्रानुसार इसकी विचक्षण सगीत प्रतिभा ने तो इसके सौन्दर्य में सोने में सुगन्ध का काम कर दिया है। कर्मों की गति भी सचमुच बड़ी ही विचित्र है । जिसने कि ऐसी नीच जाति की कन्या को ऐसा दिव्य रूप प्रदान किया है। यही कुछ सोचतेविचारते वसुदेव बैठे हुए थे कि गन्धर्वसेना ने उन्हें मानो सचेत करते हुये कहा कि क्या अब भी उस मातग कन्या के रूप में ही खोये रहोगे? - आपको ऐसे महा वशज होते हुए उस नीच कन्या पर आसक्त होने में लज्जा का अनुभव नहीं होता? इस पर वसुदेव ने उत्तर दिया मै उसके रूप को नहीं प्रत्युत उसकी सगीतकला को देख रहा था। सच मानो उसकी कला की उत्कृष्टता ने मुझे इस प्रकार तन्मय कर दिया था कि वह कौन है और कैसी है, यह जानने या देखने का तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा । इसलिये उस मातग कन्या के प्रति अन्य किसी प्रकार का कोई भाव मेरे मन में नहीं है। तुम विश्वास रखो कि मेरे हृदय मे तुम्हारे सिवाय अन्य किसी के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता। १. चाण्डाल कन्या, भीलकन्या नटपुत्री विगत
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy