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________________ 1 नही करता तथा दोनो को आत्मा से बाह्य मानता है, उसका मन समता मे प्रतिष्ठित रहता है । उसे सम्मान और अपमान की स्मृति ही नहीं होती तब वह उसके कारण चचल, अधीर या अशान्त कैसे हो सकता है ? इस प्रकार राग-द्वेप जनित जितनी विषमताए है, उनका ग्रहण नही करने वाला मन समता मे प्रतिष्ठित होता है । आत्माराम यह गुप्त मन की तीसरी अवस्था है। इसमे चेतना के अतिरिक्त कोई बाह्य आलम्बन नही होता । मन आत्मा में विलीन हो जाता है । वह कपाय ( क्रोध आदि के रगों) से मुक्त होकर शुद्धोपयोग (शुद्ध चेतना) मे परिणत हो जाता है । इस स्थिति को इन शब्दो मे भी समझाया जा सकता है कि यहा शुद्ध चेतना या चैत्य पुरुष से भिन्न मन का कोई अस्तित्व ही नही रहता । संस्कृत की एक धातु है- 'ध्यै चिन्तायाम् ' । ध्यान शब्द उससे निष्पन्न हुआ है। उस धातु के अनुसार ध्यान शब्द का अर्थ होता है-चिन्तन। चिन्तन का प्रवाह चचलता की ओर जाता है और ध्यान का प्रवाह स्थिरता की ओर । इसी आधार पर ध्यान की एक परिभाषा मिलती है - ' एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम् ।' एक आलम्बन पर चिन्तन को रोके रखना ध्यान है। हमारा चिन्तन अनेक विषयो पर चलता रहता है, वह ध्यान नही है । किन्तु वह चिन्तन एक विषय पर स्थिर हो जाता है, वह ध्यान है । चिन्तन मे एक सतति का होना आवश्यक नही है किन्तु ध्यान मे एक सतति का होना आवश्यक ही नही, अनिवार्य है । इसी आशय को लक्ष्य मे रखकर ध्यान की एक परिभाषा की गई है - 'विपयान्तरास्पर्शवती चित्तसन्ततिर्ध्यानम्' - चित्त की वह सतति (प्रवाह) जो अवलम्बित विषय के अतिरिक्त दूसरे विपयो का स्पर्श नही करती, ध्यान कहलाती है। इससे फलित होता है कि ध्यान सामान्य चिन्तन नही है किन्तु एक ही विपय पर जो चितन की धारा प्रवहमान होती है, वह ध्यान है । जल की एक वूद गिरती है और टूट जाती है। दूसरी बूद गिरती है और फिर क्रमभग हो जाता है । इस प्रकार क्रमभंग कर गिरने वाली बूंदो से ध्यान की तुलना ४२ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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