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________________ पर वह अतिमात्र शान्त हो जाता है। इस सारी प्रक्रिया को मनोगुप्ति कहा जाता है। गुप्त मन की तीन अवस्थाएं है। १. कल्पना-विमुक्त २. समत्व-प्रतिष्ठित ३. आत्माराम विमुक्त कल्पनाजाल, समत्वेषु प्रतिष्ठितम् । आत्माराम मनश्चेति, मनोगुप्तिस्त्रिधोदिता ॥ कल्पना-विमुक्त मन को एक साथ खाली नहीं किया जा सकता। उसे असत् कल्पनाओ से मुक्त करने के लिए लत् कल्पनाओ का आलम्बन लिया जाता है। इन कल्पनाओ का विशद वर्णन प्राचीन साहित्य मे मिलता है। ___ कल्पना करे कि हृदय कमल है। उसके चार पत्र है। बीच मे एक कर्णिका है। चार पत्रो और कर्णिका पर क्रमशः अ, सि, आ, उ, सा लिखा हुआ है। प्रत्येक अक्षर ज्योतिर्मय है और वह प्रदक्षिणा करता हुआ घूम रहा है। यह कल्पना पुष्ट होगी तो दूसरी कल्पनाएं अपने आप विलीन हो जाएगी। दो नासाग्र, दो आख, दो कान और एक मुख-ये सात रन्ध्र है। इन पर क्रमशः ण, मो, अ, र, ह, ता, ण-इस मन्त्र-जप के साथ ध्यान किया जाए। वर्ण और स्थान के ध्यान साथ-साथ हो। इससे मन शेष कल्पनाओ से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार सैकड़ो उपाय साधना की लम्बी परम्पराओ में प्राप्त होते है। समत्व-प्रतिष्ठित वृत्तियां दबी रहती है। वे निमित्त का योग पाकर उत्तेजित होती है और उभर आती है। उनकी उत्तेजना का बहुत वडा निमित्त है विषमता। जव-जव मन मे विषमता के भाव आते है, तब-तब वह चचल, अधीर और विक्षिप्त हो जाता है। अमुक व्यक्ति ने मेरा सम्मान किया है और अमुक ने अपमान। सम्मान और अपमान की स्मृति होते ही मन चचल हो उठता है। किन्तु जिसका मन सम्मान और अपमान दोनो को ग्रहण मनोनुशासनम् । ४१
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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