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________________ अw 9 होता, वह व्यक्ति योग-साधना का अधिकारी नहीं होता। जो मन इधर-उधर विचरण करता रहता है, किसी एक विषय पर निश्चल नही रहता, उसे विक्षिप्त कहा जाता है। जो मन कभी अन्तर्मुखी बनता है और कभी वहिर्मुखी-उसे यातायात कहा जाता है। विक्षिप्त और यातायात मन योग का प्रारम्भिक अभ्यास करने वाले व्यक्तियो मे होते है। इन दोनो मनोभूमिकाओ मे विकल्पपूर्वक बाह्य वस्तुओ का ग्रहण होता रहता है। इसलिए इनमे स्थिरता अल्प मात्रा वाली एव अल्पकालीन होती है तथा सहज आनन्द का अनुभव भी अल्प होता है। ८. अपने ध्येय मे स्थिर बने हुए मन को श्लिष्ट कहा जाता है। ६ जो मन अपने ध्येय मे सुस्थिर बन जाता है, उसे सुलीन कहा जाता है। १० ये दोनो मनोभूमिकाए परिपक्व अभ्यास वाले योगी के होती है। ११. इसमे बाह्य वस्तुओ का ग्रहण नही होता, इसलिए इन भूमिकाओ मे स्थिरता दृढ एव चिरकालीन होती है तथा सहज आनन्द का अनुभव भी विपुल होता है। १२ इस युगल (श्लिष्ट और सुलीन) का विषय मनोगत ध्येय ही होता है। यहा ध्येय सूक्ष्म और आत्मगत हो जाता है। १३ जब मन बाह्य आलम्बन से शून्य होकर केवल आत्मपरिणत हो जाता है, तव उसे निरुद्ध कहा जाता है। १४ यह भूमिका वीतराग को प्राप्त होती है। १५ इसमे सहज आनन्द प्रकट हो जाता है। मन की छह अवस्थाएं मन चेतना की वह अवस्था है जो बाहरी वातावरण और वृत्तियो से प्रभावित होता है। उसकी चचलता सहज नही है किन्तु बाह्य वातावरण और वृत्ति के योग से निष्पन्न है। चचलता का मूल हेतु वृत्ति है। मनुष्य जो प्रवृत्ति करता है, वह अल्पकालिक होती है। प्रवृत्ति समाप्त हो जाती ३० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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