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________________ तथा शरीर की प्रवृत्तियो का निरोध) से आत्मा के साथ परमाणु-स्कन्धों का योग रुक जाता है। बन्ध और मुक्ति के हेतु वन्ध और मुक्ति की मीमांसा वहुत विस्तार से की गई है। कभी-कभी ऐसा होता है कि वहुत विस्तार से कही गई बात स्मृति में नहीं रहती। तव उसका सक्षेप करना आवश्यक हो जाता है। सक्षेप में वन्ध का हेतु एक है और मोक्ष का हेतु भी एक ही है। इसी तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र ने इन शब्दों में व्यक्त किया है आस्रवो भवहेतु स्यात् सवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टि सर्वमन्यत् प्रपचनम् ।। आस्रव बन्ध का हेतु और संवर मोक्ष का हेतु । जैन-धर्म का मौलिक प्रतिपाद्य इतना ही है। शेप सव उसका विस्तार है। योग-साधना के द्वारा हम मुक्ति का अनुमव करना चाहते है, किन्तु आस्रव के द्वारा बन्ध प्रवाहित होता रहता है, इसलिए हम मुक्ति का अनुभव नहीं कर पाते। मिथ्यात्व से हमारे दृष्टिकोण मे विपर्यय छा जाता है, इसलिए हम मुक्त भाव से सत्य का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते। अव्रत के द्वारा हमारा मन आकांक्षाओं से भरा रहता है, इसलिए हम सहज स्वभाव की अनुभूति नही कर पाते। प्रमाद के द्वारा आत्म-दर्शन के प्रति अलसता उत्पन्न हो जाती है, फलत. हम अपने स्वरूप की उपलब्धि के लिए जागरूक नहीं रह पाते। __कषाय के द्वारा हमारी आत्मा सतप्त रहती है इसलिए हम सहज शान्ति का अनुभव नहीं कर पाते। प्रवृत्ति के द्वारा हमारी सहज स्थिरता समाप्त हो जाती है, इसलिए हम आत्म-उपलब्धि के लिए केन्द्रित नहीं हो पाते। ___इस प्रकार आस्रव के द्वारा हमारी चेतना बधी हुई रहती है। जीवन-पथ की दीर्घ यात्रा में काल-विपाक के कारण कोई क्षण ऐसा आता है कि आत्मा मे मुक्ति की भावना जाग उठती है। उसकी पूर्ति के लिए योगसाधना का सहारा लिया जाता है। उसका मुख्य हेतु संवर है, ठीक २६ । मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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