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________________ पौद्गलिक तत्त्वो को जान सकते है किन्तु चेतना की अभौतिक सत्ता को नही जान सकते। साधना के द्वारा हम स्थूल जगत् से सम्बन्ध विच्छिन्न कर सूक्ष्म जगत् से सम्पर्क स्थापित कर सकते है। जैसे-जेसे हमारे मन का विक्षेप, विकार और आवरण विलीन होता है, वैसे-वैसे सूक्ष्म पर आया हुआ आवरण दूर हटता चला जाता है। हमारी निरावरण अवस्था ही आत्मा का स्वरूप है। यही हमारी मुक्ति है। आत्मा और मुक्ति का स्वरूप एक है। जो आत्मा है वही मुक्ति है और जो अनात्मा है वही वन्धन है। हम जव तक वन्धन की स्थिति मे रहते है, तव तक हमे अपना स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। जैसे-जैसे हम बन्धन को काटते चले जाते है, वैसे-वैसे ही हमारी मुक्ति होती जाती है। मुक्ति केवल अतिम क्षण मे ही नहीं होती किन्तु उसका एक क्रम होता है। उसके अनुसार साधना के हर क्षण मे मुक्ति होती है। साधना जैसे ही चरम विन्दु पर पहुचती है, वैसे ही मुक्ति का परिपूर्ण रूप प्रकट हो जाता है। ____ आत्मा एक द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मात्मक होता है। आत्मा के स्वरूप की व्याख्या उन धर्मो के आधार पर की जा सकती है जो धर्म परमाणु समुदाय से प्रभावित होते है। कुछ परमाणु आत्मा के ज्ञान, दर्शन को आवृत करते है। कुछ परमाणु आत्मा मे विकार उत्पन्न करते है। कुछ परमाणु आत्मा के वीर्य का प्रतिघात या अवरोध करते है। कुछ परमाणु पारमाणविक सयोग या प्राप्ति के हेतु वनते है। इस प्रकार आवरण, विकार, प्रतिघात और प्राप्ति-इन चार रूपो मे परमाणु आत्मा को प्रभावित करते है। यह प्रभावित अवस्था ही वन्धन है। इस प्रभाव से छूटना ही मुक्ति है और , वही आत्मा का स्वरूप है। निरावरण दशा आत्मा का स्वरूप है। इसका अर्थ है ज्ञान और दर्शन का पूर्णरूपेण प्रकट हो जाना। वीतरागता आत्मा का स्वरूप है। इसका अर्थ है विकार से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाना। शक्ति आत्मा का स्वरूप है। परमाणुओ से असवद्ध होना आत्मा का स्वरूप है। उस स्वरूप की उपलब्धि ही साधना का प्रयोजन है। वन्धन-मुक्ति से बढकर साधना का और प्रयोजन हो ही क्या सकता है ? १० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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