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________________ चक्षु दृश्य को देखता है पर उसे न निर्मित करता है और न उसका फल-भोग करता है। वह अकारक और अवेदक है। इसी प्रकार चैतन्य भी अकारक और अवेदक है। ज्ञानी जब केवल जानता या देखता है, तव न वह कर्मवन्ध करता है, और न विपाक में आये हुए कर्म का वेदन करता है। जिसे केवल जानने या देखने का अभ्यास उपलब्ध हो जाता है, वह व्याधि या अन्य आगतुक कप्ट को देख लेता है, जान लेता है, पर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता। इस वेदना की प्रेक्षा से कप्ट की अनुभूति ही कम नही होती किन्तु कर्म के बंध, सत्ता उदय और निर्जरा को देखने की क्षमता भी विकसित हो जाती है। अप्रमाद ध्यान का स्वरूप है अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या मतत जागरूकता। भगवान् महावीर दिन-रात जागृत रहते थे। जो जागृत होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है। भगवान् महावीर ने कहा-जो प्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति, अपने चैतन्य के प्रति जागृत नहीं होता, वह सब ओर से भय का अनुभव करता है। जो अप्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति, अपने चैतन्त के प्रति जागृत होता है, वह कही भी भय का अनुभव नही करता, सर्वथा अभय होता है। __भगवान् ने अपने ज्येष्ठ शिप्य गौतम से कहा- 'समय गोयम । मा पमायए' गौतम । तू क्षणभर भी प्रमाद मत कर। यह उपदेश-गाथा है। १ समयसार, गाथा ३१६, ३२० अण्णाणी कम्मफल पयडिसहावडिओ दु वेदेहु। णाणी पुण कम्मफल जाणइ उदिय ण वेदेइ॥३१६॥ दिट्ठी जहेब णाण अकारय तह अवेदय चेव। जाणइ य बधमोक्ख कम्मुदय णिज्जर चेव॥३२०॥ २ आयारो, ६/१/४ राइ दिव पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति। ३ आयारो, ३/७५ सव्वतो पमत्तस्स भय, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्यि भव। ४ उत्तरज्झयणाणि, १०/१ १७४ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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