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________________ समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएगे। आप स्थिर होकर अपने भीतर देखे,-अपने विचारो को देखे या शरीर के प्रकम्पनों को देखे तो आप पाएगे कि विचार स्थगित है और विकल्प शून्य है। भीतर की गहराइयो को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर को देखने लगेगे। जो भीतरी सत्य को देख लेता है, उसमे बाहरी सत्य को देखने की क्षमता अपने आप आ जाती है। देखना वह है, जहा केवल चैतन्य सक्रिय होता है। जहा प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, राग और द्वेष उभर जाए वहा देखना गौण हो जाता है। यही बात जानने पर लागू होती है। हम पहले देखते है, फिर जानते है। इसे इस भाषा मे स्पष्ट किया जा सकता है कि हम जैसे-जैसे देखते जाते है, वैसे-वैसे जानते चले जाते है। मन से देखने को ‘पश्यत्ता' (पासणया) कहा गया है। इन्द्रिय-संवेदन से शून्य चैतन्य का उपयोग देखना और जानना है। __जो पश्यक-द्रष्टा है, उसका दृश्य के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता भगवान् महावीर ऊंचे, नीचे और मध्य मे प्रेक्षा करते हुए समाधि को प्राप्त हो जाते थे। उक्त चर्चा के सन्दर्भ मे प्रेक्षा-ध्यान का मूल्याकन किया जा सकता है। माध्यस्थ्य या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है। जो देखता है वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नही होता और अप्रिय के प्रति द्वेपपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनो की उपेक्षा करता है-दोनो को निकटता से देखता है। और उन्हे निकटता से देखता है इसीलिए वह उनके प्रति सम, मध्यस्थ या तटस्थ रह सकता है। उपेक्षा या मध्यस्थता को प्रेक्षा से पृथक् नही किया जा सकता। 'जो इस महान् लोक की उपेक्षा करता है-उसे निकटता से देखता है, वह अप्रमत्त विहार कर सकता है। १ २ आयारो, २/११८ अण्णहा ण पासए परिहरेज्जा। आयारो, ६/४/१४ उड्ढमहे तिरिय च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे। सूयगडो, १/१२/१५ उवेहती लोगमिण महत वुद्धप्पमत्तेसु परिव्वएज्जा। चूर्णि, पृ. २६८ उवेहती-उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थ , उपेक्षा करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थ ॥ ३ मनोनुशासनम् / १७३
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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