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________________ पर वे विकसित नही हो सकते। इसलिए महाव्रत मूल गुण है। सुदृढ आधार के बिना भवन की मजिलो की कल्पना नही की जा सकती। वैसे ही मूल गुणो का स्थिर अभ्यास किए विना धारणा, ध्यान और समाधि की कल्पना नही की जा सकती। इस दृष्टि से साधना के प्रसग मे महाव्रतो का प्राथमिक स्थान है। महाव्रत के पाच प्रकार है १ अहिसा २ सत्य ३ अस्तेय ४ ब्रह्मचर्य ५ अपरिग्रह। इनमे मुख्य स्थान अहिसा का है। शेष सव उसी का विस्तार है। अहिसा के दो रूप होते है १ सकल्पकृत अहिसा २ सिद्ध अहिसा। साधना के आरम्भ मे साधक अहिसा का सकल्प स्वीकार करता है। इसमे मानसिक भूमिका सुपरिपक्व नहीं होती, इसलिए बार-बार उतार-चढाव आता रहता है। हिसा के सस्कार पुन -पुन उद्दीप्त होते रहते है। किन्तु अहिसा का सकल्प तथा उसकी सिद्धि का लक्ष्य होने के कारण साधक उस स्थिति का अनुभव करता हुआ भी आगे की ओर बढता चला जाता है। वह निराश होकर न पीछे लौटता है और न रुकता है। आन्तरिक शुद्धि का अभ्यास करते-करते कषाय भीण होता है, तब अहिसा सिद्ध हो जाती है। उस स्थिति मे साधक के मन मे समता का पूर्ण विकास होता है। उसके मन मे फिर शत्रु और मित्र का भेद नही रहता। जीवन के प्रति अनुराग और मृत्यु का भय नहीं रहता। हीन और उत्कर्प की भावना समाप्त हो जाती है। निन्दा से ग्लानि और प्रशसा से उत्फुल्लता नही होती। मान और अपमान से उसका मानसिक सतुलन नही विगडता। उसमे सहज सयम विकसित होता है और उसमे सब जीवो को आत्मतुल्य समझने की प्रज्ञा प्रकट हो जाती है। ___ अहिसा के साथ-साथ व्यक्ति मे ऋजुता प्रकट होती है, यही उसका १३६ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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