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________________ चाहिए। वैसे स्थान और आसन का भी वर्जन करना चाहिए। चक्षु, स्पर्शन, जीभ और श्रोत्र का उच्छृखल प्रयोग नही करना चाहिए। १३ इन्द्रियो के प्रिय विषयो मे आसक्ति और अप्रिय विषयो मे द्वेष नही करना चाहिए। उसे देहाध्यास का त्याग करना चाहिए। १४ स्थूल हिसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह-इनकी विरति को अणुव्रत कहा जाता है। १५ श्रमण-धर्म दस प्रकार का है १. क्षमा ६ सयम २. मार्दव ७. तप ३. आर्जव त्याग ४ शौच ६. आकिचन्य ५ सत्य १० ब्रह्मचर्य १६. क्रोध के निग्रह को क्षमा कहा जाता है। जो आक्रोश और ताडना को सहन करता है, उसके कर्म-सस्कार क्षीण होते है। जो सहन नही करता, उसके कर्म-सस्कार संचित होते है, इसलिए आने वाले क्रोध का निग्रह करो और जो क्रोध आ गया, उसे विफल करो। १७ जाति, कुल, विद्या, ऐश्वर्य आदि मे जो हीन हो, उनका तिरस्कार न करना मार्दव है। मै उत्तम जातीय हू और यह नीच जातीय है-इस प्रकार मद नही करना चाहिए। जो मद नही करता, उसके कर्म-सस्कार क्षीण होते है। जो मद करता है, उसके कर्म-सस्कार सचित होते है, इसलिए आने वाले मान का निग्रह करो और जो मान आ गया, उसे विफल करो। १८ माया के निरोध को आर्जव कहा जाता है। जो ऋजु होता है, उसके कर्म-सस्कार क्षीण होते है। जो कुटिल होता है, उसके कर्म-सस्कार संचित होते है, इसलिए होने वाली माया का निग्रह करो और जो माया हो गई, उसे विफल करो। १६. अलुब्धता को शौच कहा जाता है। जो लुब्धभाव नहीं १३४ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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